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________________ हंस छोड़ चले शुष्क सरोवर २६७ संकीर्ण व्यक्ति मानव धर्म की भी उपेक्षा करने लगता है। ऐसा करके वह संसार का तो अपकार करता ही है, खुद अपना पतन भी व्तर लेता है। संकीर्ण भौतिक एवं निकृष्ट स्वार्थ मिथ्यास्वार्थ माना जाता है। ऐसा निकृयर स्वार्थ समस्त पापों और बुराइयों का मूल स्त्रोत होता है। एक पाश्चात्य लेखक इमान्स (Emmons) मे तो यहां तक कह दिया है "Selfishness is the root and source of all natural and moral evils." 'स्वार्थपरता तमाम नैसर्गिक और नैतिक बुराइयों की जड़ और स्रोत है।' चूंकि मिथ्या स्वार्थ मनुष्य को वासनाम्चों और तृष्णाओं से ग्रसित कर कुकर्म करने को विवश करता है। ऐसा स्वार्थी व्यफ किसी तात्कालिक लाभ को भले ही प्राप्त कर ले, पर अन्त में उसे लोकनिन्दा, अविश्वास, असन्तोष, विरोध, विक्षोभ, आत्मग्लानि और अशान्ति आदि के कष्टदायक, मानसिक एवं शारिरिक नरक में पड़ना पड़ता है। इन्हीं कारणों से ऐसे नारकीय, निकृष् एवं मिथ्या स्वार्थी जीवन को मनीषियों ने निन्दित एवं हेय बताया है। स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ में अधिक लाभ यों देखा जाए तो स्वार्थ और परमार्थ में बहुत थोड़ा-सा अन्तर है। स्वार्थ उसे कहते हैं, जो शरीर को तो सुविधा पहुंचाता हो, पर आत्मा की उपेक्षा करता हो। चूंकि हम आत्मा हैं, शरीर तो हमारा वाहन या उपकरण मात्र है, इसलिए वाहन या उपकरण को लाभ पहुँचाकर उसके स्वामी (आत्मा) को दुःख में डालना मूर्खतापूर्ण कार्य कहा जाएगा। इसके विपरीत परमार्थ में आत्मा के व्ल्याण का ध्यान मुख्यरूप से रखा जाता है। आत्मा का उत्कर्ष होने से शरीर को सब प्रकार से सुखी रखने वाली आवश्यक परिस्थितियाँ अपने आप आती रहती हैं। संवल अनावश्यक विलासिता एवं सुख सुविधाओं पर अंकुश रखना पड़ता है। फिर गो यदि कभी ऐसा अवसर आ जाये तो शारीरिक कष्ट सहकर भी आसा को परमार्थ व्ता पुण्यलाभ देना बुद्धिमता है। परमार्थसुख श्रेष्ठ है या स्वार्थसुख ? सांसारिक भोगों का उपभोग करने और मनभाती परिस्थितियाँ पा लेने से शारिरिक सुख मिलता है, लेकिन आत्मा सुखी होती है—परोपकार एवं परमार्थ कार्यों से। अतएव विवेकशील व्यक्ति सच्चा सुख पाने के लिए स्वार्थ सुख की अपेक्षा परमार्थ सुख को अधिक महत्त्व देते हैं। वे परमार्थ सुख के लिए स्वार्थसुख का भी त्याग कर देते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि शारिक सुख तो क्षणिक और छायावत् है जबकि आत्मिक सुख सत्य, शाश्वत और यथाट हैं। स्वार्थ का संक्लेशपूर्ण मार्ग त्याग देने से परमार्थ का भाव स्वतः आ जाता है।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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