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आनन्द प्रवचन : भाग ६
मूढ़ स्वार्थी अपनी ही अधिक हानि करते हैं
इस प्रकार के स्वार्थी मनुष्य यह सोच ले हैं, कि इस प्रकार के स्वार्थ साधकर हम आत्मसन्तोष और आत्मसुख पा लेंगे। परन्तु आप यह प्रतिदिन के अनुभव से समझ सकते हैं कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे के स्वार्थ का हनन करके क्या मुख, सन्तोष और शान्ति प्राप्त कर सकता है ? दूसरों को हानि रम कष्ट पहुंचाकर कितने ही बड़े स्वार्थ की सिद्धि क्यों न कर ले, उससे उसे शान्ति नहीं मिल सकेगी। सर्वप्रथम तो जिसे कष्ट हुआ है, वह प्रतिक्रियास्वरूप उसे शान्ति से न बैठने देगा, दूसरे शासन, समाज एवं लोकनिन्दा का भय बना रहेगा, तीसरे उसकी स्वयं की आत्मा उसे कचोटती रहेगी। वह प्रतिक्षण टोकती रहेगी कि तुमने अमुक व्यक्ति को कष्ट पहुँचाकर, अमुक उपकारी को धोखा देकर, या संकट के समय पीड़ित ने देकर जो स्वार्थसिद्धि की है, वह उचित नहीं, इसके लिए तुम्हें इस लोक या फलोक में कभी न कभी अवश्य दण्ड मिलेगा, ऐसी स्थिति में स्वार्थसिद्धि सुखदायक ता नहीं, बल्कि अधिकतर त्रासदायक ही बनेगी, तब कहाँ स्वार्थ का प्रयोजन पूरा हुआ और परमार्थ का उद्देश्य तो पूर्ण होता ही कैसे ?"
इसलिए मैं तो कहूँगा कि अपने उपकारी को दुःखसागर में डूबने देकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना कथमपि हितावह नहीं हो सकता। ऐसा स्वार्थपूर्ण जीवन सबसे दुःखमयी जीवन है। पाश्चात्य लेखक इमर्सन (Emerson) ने यही दात कही है
"The selfish man suffers more from his selfishness than he from whom that selfishness withholds some important benefit."
"स्वार्थी मनुष्य जिस मनुष्य से अपने लिसी खास लाभ के लिए स्वार्थ साधना चाहता है, उसकी उपेक्षा उसे अपने स्वार्थ से ज्यादा कष्ट सहना पड़ता है।'
वास्तव में देखा जाए तो स्वार्थपूर्ण जीवन नारकीय जीवन है। स्वार्थपरता के कारण मनुष्य चोर, बेईमान, कपटी, धोखेबाज, हत्यारा और दुष्ट बन जाता है। संसार मे संघर्ष, द्वेष, ईर्ष्या, लोभ, लालसा आदि समस्त दोषों का मूल कारण स्वार्थ ही है। स्वार्थी मनुष्य केवल अपने ही लाभ की बारा सोचता है। दूसरे का चाहे जितना नुकसान हो, दूसरे उसके कारण चाहे जितने संकट में पड़ें, इसकी परवाह नहीं करता। ऐसा स्वार्थी मनुष्य अपने सव सद्गुणों को धरि-धीरे खो बैठता है। एक पाश्चात्य विचारक रोचीफाउकोल्ड (Rouchefoucouldl ने सच ही कहा है-----
"The virtues are lost in self interest as rivers are in the sea." "स्वार्थ में सभी सदगुण उसी तरह खो जाते हैं, जैसे नदियां समुद्र में खो जाती
___लोभ, लोलुपता एवं परपीड़न की भाना से प्रेरित प्रवृत्तियाँ ही स्वार्थ हैं, जिनकी विचारकों और मनीषियों ने निन्दा की है, संतों ने उनका निषेध किया है। ऐसी