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________________ २६४ आनन्द प्रवचन: भाग ६ कूणिक जब एक बार मातृवन्दन करने आया तो माता को उदास और खिन्न देखकर उदासी का कारण पूछा। चेलना ने पिता के द्वारा कूणिक पर किये गये उपकारों का अथ से इति तक वर्णन किया। इस पर कूणिक के हृदय में पितृप्रेम जाग उठा। वह अपने पिता को बन्धन-मुक्त करने पहुँचा, परन्तु राजा श्रेणिक ने कूणिक के पहुँचने से पूर्व ही अपनी जीवनलीला समाप कर दी थी। कूणिक का हृदय शोक संतप्त हो उठा। पर अब क्या हो सकता था? कूणिक की यह कहानी उस मूढ म्वार्थी पाषाण हृदय की कहानी है, जिसने अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए पिता के प्रमि, घातक कहर बरसा दिया था। भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक मूढ़ स्वार्थियों की काहनियाँ अंकित हैं। आपको मैंने एक दिन उन चार अतिस्वार्थी ब्राह्मणों की कहानी सुनाई थी, जिन्होंने यजमान से गाय पाकर अपनी-अभी बारी पर उसका दूध तो दुह लिया, मगर उसे चारा दाना बिलकुल न खिलाया, न ही समय पर पानी पिलाया एवं सेवा ही की, परिणाम यह हुआ कि बेचारी गाय तड़प-तक्षप कर मर गई। इस अतिस्वार्थ के परिणामस्वरूप मनुष्य मनुष्य न होकर भी मनुष्यता का व्यवहार नहीं करता। वह इस मूढ़ स्वार्थ वे कारण नर-पिशाच बन जाता है। अब एक चौथी कोटि का घृणित, गन्ध और मूढ़ स्वार्थी व्यक्ति रह गया। यह तो सबसे अधम और निकृष्ट है। तीसरी कौटेि का व्यक्ति तो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरों के स्वार्थों का सफाया करता है, पर यह मनुष्य राक्षस अपने किसी भी स्वार्थ के बिना ही दूसरों के स्वार्थ का विघटन कर तिा है। यह प्रवृत्ति अत्यन्त मूर्खतापूर्ण और अवांछनीय है। एक उदाहरण द्वारा इसे स्पणा कर दूं पुराने जमाने की बात है। एक लोभी और एक ईर्ष्यालु देवी के मन्दिर में गए। दोनों ने भक्तिपूर्वक देवी की आराधना बवें । अतः देवी प्रसन्न होकर बोली- 'तुम यथेष्ट घर माँग लो, पर शर्त यह है कि पहले जो माँगेगा, उसकी अपेक्षा बाद में माँगने वाले को दुगुना मिलेगा।" दोनों एक दूसरे से पहले माँगने का आग्रह करने लगे, लोभी दूने धन का लोभ कैसे संवरण कर सकता ध्या, और ईर्ष्यालू अपने साथी के पास दुगुना धन हो जाए, यह कैसे सहन कर लेता ?'फलतः दोनों अपने-अपने आग्रह पर अड़े रहे। काफी समय बीत गया, कोई भी पहले मांगने को तैयार न हुआ। आखिर ईर्ष्यालु उत्तेजित होकर बोला- "मां। यह बड़ा लोभी है। इसलिए कदापि पहले मांगने का प्रयल नहीं करेगा। अतः मैं ही पहल करता हूं।" देवी ने कहा-"अच्छा तुम मांगो।" ईर्ष्यालु बोला -- "मां ! मेरी एक आंख फोड़ डालो।" देवी ने तथास्तु कहते ही ईर्ष्यालु काना हो गया। लोभी ने घबरकर देवी से प्रार्थना की—"मां ! मेरी दोनों आंखें मत फोड़ डालना।" देवी बोली- अपने वचन से कैसे फिर सकती हूं?" उसने लोभी की दोनों आंके फोड़ डाली। वक्ष अंधा हो गया।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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