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दुःख का मूल : लोभ
desert which sucks in all the rain and dew with greediness, but yields no fruitful herbs or plants for the benefit of others."
लोभी मनुष्य रेगिस्तान के बंजर रेतीले मैदान की तरह होता है, जो लालच के वश तमाम वर्षा और ओस चूस लेता है, किन्तु कोई भी फलवान जड़ियाँ या पौधे दूसरों के फायदे के लिए पैदा नहीं करता। इसीलिए नीतिकार साफ-साफ कहते हैं
अर्थानाने दुःखं, अनितानां च रक्षणे।
आये दुःखं, व्यये दुखं, भिंगाः कष्टसंश्रया।। धन और साधनों के अर्जन (प्राप्त) काने में दुःख है, फिर उपार्जित किये हुए धन कीरक्षा करने में दुःख है, आय में दुःख है, व्यय में दुःख है। धिक्कार है ऐसे अर्थ को, जो अपने दुःखों का आश्रयस्थान है।
आप जानते हैं कि धन या संसार का कोई भी पदार्थ अपने आप में दुःख या सुख देने वाला नहीं है। उसका उपयोग करने वाले की बुद्धि पर निर्भर है कि वह धन या साधनों का उपयोग करता है या नहीं ? करता है तो परोपकार में करता है या अपने स्वार्थ के लिए करता है, उसमें से खर्च करने या दान देने में उसका जी कटता है, उसके मन को गहरी चोट लगती है, धन के काले जाने से या खर्च करने से । तब अर्थ दुःख का कारण बनता है। इसलिए कहना चाहिए कि धन दुःख का कारण नहीं, धन का लोभ दुःख का कारण है। लोभ चाहे धन प्रति हो या किसी भी सांसारिक वस्तु के प्रति, बह दुःख का कारण है। इसीलिए एक आचार्य ने कहा है
सुमहान्त्यपि शास्त्राणि शरयन्तो बहुश्रुता ।
छेत्तारः संशयानां च क्लिशगन्ते लोभमोहिताः।। बड़े-बड़े शास्त्रों के ज्ञाता, बहुश्रुत एवं मंशयों को मिटाने वाले पण्डित भी लोभ से मूढ़ बने हुए क्लेश पाते हैं।
लोभ अपने आप में दुःख का मूल है। उसे जो भी पकड़ेगा, दुःख ही पाएगा। फिर वह चाहे बड़े से बड़ा विद्वान, शास्त्रज्ञ या आचारवान् ही क्यों न हो, चाहे वह लोकसेवक, राष्ट्रसेवक या ग्रामसेवक ही क्यों नहो, भले ही वह सार्वजनिक संस्था का अध्यक्ष हो, नामी संस्था का मंत्री हो या और काई उच्च पदाधिकारी हो; जब भी, जहाँ भी, जो भी लोभपिशाच से ग्रस्त होगा, Fह अनेकों दुःख पाएगा। वे दुःख आधिभौतिक भी हो सकते हैं, आधिदैविक भी और आध्यात्मिक भी; परन्तु वह इन तीनों प्रकार के दुःखों से छुटकारा तब तक नहीं पा सकता, जब तक वह लोभ का पिण्ड न छोड़ दे। वह लोभ के वशीभूत होकर क्यों दुःख पाता है ? इसके उत्तर में एक विचारक कहते हैं
लोभेन बुद्धिश्चलति, लोभो। जनयते तृषाम् ।
तृषार्तो दुःखमाप्नोति परक्रे च मानवः।। "लोभ से मनुष्य की बुद्धि चंचल हो जाती है। चंचल बुद्धि अनेक पापकर्म