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________________ मनवान मुनि को तजते पाप : २ २४६ दूसरा समाधान यह भी हो सकता है कि परमज्ञानी के हृदय में करुणा जागती है, कि मैंने जो जाना-देखा है अनुभव किया है, उसे दूसरों को भी बताऊँ। इस प्रकार उनकी करुणा का निझर फूटता है, उन अल्पज्ञ, किन्तु जिज्ञासु लोगों को ज्ञान प्रदान करने के लिए और वे उन अज्ञानी अल्पज्ञ मनुष्मं को समझाने के लिए बोलते हैं । प्रश्न व्याकरण सूत्र इस बात का साक्षी है। वहाँ भगवान के द्वारा प्रवचन करने का प्रयोजन स्पष्ट बताया गया है "सबजगजीवरक्खणदयट्ठयाए Pावयणं भगवया सुकहिये।" "समस्त जगत् के जीवों की रक्षा रूप दया से प्रेरित होकर भगावन ने प्रवचन (सिद्धान्त-वचन) कहा है।' अगर एक ज्ञानी और एक अज्ञानी शेता है तो बोलने की जरूरत पड़ती है। किन्तु यदि दोनों ही ज्ञानी मिलते हैं तो उन परस्पर बोलने की जरूरत नहीं पड़ती। वहाँ आत्मा से आत्मा की बात होती है, भाषा के प्रयोग की वहाँ आवश्यकता नहीं रहती। एक बार यात्रा करते-करते फरीद झाशी पहुंचा। वहाँ कबीर से मिलने के शिष्यों के अनुरोध से फरीद कबीर के आश्चम की ओर चल पड़े। उधर कबीर के शिष्यों को पता चला तो उन्होंने भी फरी को अपने आश्रम में ठहराने के लिए अनुरोध किया। कबीर अपने शिष्यों को साथ ले फरीद से मिलने चल पड़े। कबीर और फरीद दोनों प्रेम से मिले । कबीर ने फरीर को अपने आश्रम में ठहरने को कहा तो फरीद ने स्वीकार कर लिया। फरीद और कबीर दोनों आश्रम में बैठे हैं, पास ही दोनों के शिष्य भी। लेकिन दोनों में से कोई भी नहीं बोलता। घंटा, दो घंटे ही नहीं करीब 48 घंटे हो गए, इस दौरान वे दोनों मिले त अनेक बार, दोनों की आँखें भी मिलीं, लेकिन दोनों ही मौन रहे। शिष्यों ने अपने अपने गुरु से कहा- "हम तो आप दोनों के बोलने की प्रतीक्षा करते-करते थक गए, लेकिन आप बोले क्यों नहीं।" दोनों ने अपने शिष्यों का समाधान किया। फरीद बाला--"कबीर जैसे महाज्ञानी से मैं क्या बात करता ? वह तो मेरे मन की बात जानता है।" कबीर ने कहा-'फरीद जैसा ज्ञानी मेरे सामने था, फिर मैं किससे बात करता ? वह तो मेरे मन की सारी बातें जानता है।" बन्धुओ ! ज्ञानी ज्ञानी से मिलता है तो बोलने की अपेक्षा नहीं रहती है—अज्ञानी-अल्पज्ञ के सामने। किन्तु भगवान महावीर ने वचनक्रिया कि प्रवृत्ति के सम्बन्ध में एक और यतना (विवेक) बताई है कि अगर कोई हठाग्रही कदाग्रही मिल जाए तो पहले उसे बार-बार समझाओ, उसे 1 सोचने का अवकाश दो, फिर भी वह अपनी जिद्द पर अड़ा रहे तो वहां वागगुप्ति कर लो, अर्थात् मौन कर लो, व्यर्थ का वादविवाद करके द्वेष, रोष और कलह मत बाओ।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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