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आनन्द प्रवचन : भाग ६
मनुष्य-जीवन भी एक यात्रा है। जिसमे कदम कदम पर उलझनें, भय, विपत्तियाँ, विघ्न-बाधाएं, संघर्ष आदि तूफान हैं, जिनसे मन-वचन-शरीररूपी नौका को बचाना आवश्यक है। जो नाव चलाना नहीं जानता है, किन्तु आवेश में आकर अन्धाधुन्ध प्रवृत्ति कर डालता है, वह नौका को सूफानों में छोड़ देता है, जिससे वह मझधार में नष्टभ्रष्ट हो जाती है। परन्तु जो जीवनयात्री नाविक कुशल है, कार्यक्षम है, जीवनपथ की सभी कठिनाइयों को जानता है, प्रकृति में आने वाली विघ्नबाधाओं और संकटों से वह नौका को बचाता हुआ, उस पार तक सकुशल ले जाता है। वह लक्ष्य तक पहुंच जाता है। प्रत्येक प्रवृत्ति कैसे करें ?
बन्धुओ ! श्रमण भगवान महावीर के पास भी कुछ नौसिखिए साधक ऐसे आए, जिनके मन में प्रवृत्ति के बारे में पहले कही गई शंक्षाएँ चल रही थीं। ऐसा तो असम्भव था कि वे कुछ प्रवृत्ति न करते। खाने-पीने, उठने बैठने, चलने-फिरने सोने-जागने और बोलने मौन रखने की सभी प्रवृत्तियाँ करनी अवार्य थीं, परन्तु समस्या थी उनके सामने कि इन प्रवृत्तियों के साथ लगने वाले पाण-दोषों से कैसे बचा जाय ? उन्होंने भगवान महावीर के समक्ष सविनय अपनी जिज्ञासा प्रकट की
कहं चरे ? कह चिट्ठे ? कहमासे ? कहं सए ?
कहं भुंजंतो भासंतो पावकमं न बंधई ? हे भगवन् ! साधक कैसे चले? कैसे खदा हो ? कैसे बैठे और कैसे सोये ? तथा किस प्रकार भोजन एवं भाषण करे, जिससे के पापकर्म का बन्ध न हो।
साधक का प्रश्न कुछेक प्रवृत्तियों को गिमाकर मन-वचन-काया से होने वाली समस्त प्रवृत्तियों के बारे में है।
श्रमण भगवान महावीर ने उन नवदीक्षित साधकों का मनःसमाधान करते हुए कहा
जयं चरे, जयं चिठे, जपमासे जयं सए।
जयं भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बँधई।। साधक यतना से चले, यतना से खड़ा है,। यतना से बैठे और यतना से सोए। इस प्रकार यतना से भोजन एवं भाषण करने से साधक के पापकर्म का बन्ध नहीं होता।
प्रश्न का समाधान तो कर दिया गया, लेकिन फिर भी दिमाग में दूसरा प्रश्न उठ खड़ा होता है कि यह यतना क्या है ? श्री गौतम ऋषि ने भी तो यही कहा है कि "जो मुनि यतन करता है, उसे पाप छोड़ देते हैं।" यत्ना का प्रथम अर्थ : यतना, जयणा
अगर यत्ला को आप समझ लेंगे तो गतनावान को बहुत आसानी से समझ जाएँग।