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________________ २१८ आनन्द प्रवचन भाग ६ ही अर्थक्रियाकारित्व है। वस्तु यह है, जो अपने कुछ न कुछ क्रिया करती रहती है। जो कुछ नहीं करता, वह सत्या पदार्थ नहीं होता। जिसका अस्तित्व है, उसमें प्रवृत्ति है, सक्रियता है। योगवाशिष्ठ में जीवन में क्रिया का महत्व बताते हुए कहा है-न च निस्पन्दता लोके टेह शवतां विना । स्पन्दाच्च फलसम्प्राप्तिस्तस्मा दैवं निरर्थकम् ।। "संसार में मृत शरीर (शब) के सिवाय कहीं निस्पन्दता क्रियारहितता नहीं है। उचित क्रिया के द्वारा ही फलप्राप्ति होती है। इसलिए दैव की कल्पना व्यर्थ है ।' इस कर्ममय (प्रवृत्तिमय) संसार में क्रिया से अधिक बलवती वस्तु और कुछ नहीं है। कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने भी कहा है--- शरीरयात्राऽपि च ते न प्रासेद्धयेदकर्मणः । “यदि तू कर्म करना छोड़ दे तो तेरी शरीरयात्रा भी नहीं चल सकती। कर्म ( प्रवृत्ति) जीवन में अनिवार्य है । " अतः निवृत्ति का अर्थ भी प्रवृत्ति का रूपान्तर है। जैसे एक किसान खेती का काम निपटाकर आया और भोजन की प्रवृत्ति में लगा। एक भोगी आत्मसाधना से निवृत्त हुआ और विषयभोगों में प्रवृत्त हुआ। गाधु के लिए कहा गया हैअरिओ होइ एगया। संघमे य पवत्तणं । । एगया विरओ होई, असंजमे नियतिं च, संयमी साधु एक ओर से विरत होता है तो दूसरी ओर प्रवृत्त भी होता है। असंयम से उसकी निवृत्ति होती है तो संयम में उसकी प्रवृत्ति होती है। निष्कर्ष यह है कि साधक में एक क्रिया से निवृत्ति होती है की दूसरी में प्रवृत्ति। जीवन में मुख्यतया प्रवृत्ति (क्रिया) की ही रहती है । निवृत्ति का अर्थ सर्वदा निश्चेष्ट होना निवृत्ति है, परन्तु साथ ही उस साधक का मन दूसरी धच्छी प्रवत्ति में संलग्न होना चाहिए। शास्त्रीय परिभाषा में व्यवहार चारित्र का लक्षण यही किया गया है “असुहादो विणिवित्ति, सुहे पत्ति य जाण चारितं । ' 'अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र समझो। " जो व्यक्ति बाहर से अपने शरीर और इन्द्रियों को निश्चेष्ट करके मन ही मन विषयों के चिन्तनरूप प्रवृत्ति करता रहता है, वह ढोंगी और दम्भी कहलाता है। भगवद्गीता में स्पष्ट कहा गया है— कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य कास्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते । । जो व्यक्ति लोगों पर प्रभाव डालने के लिए बाहर से कर्मेन्द्रियों को रोककर निश्चेष्ट कर लेता है, लेकिन साथ ही मन में। इन्द्रियविषयों का स्मरण करता रहता है। वह मूढात्मा मिथ्याचारी है, वह चारित्रवान नहीं । दम्भी है, प्रदर्शनकर्ता है।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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