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सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : २
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आत्मिक भी। ऐसी कौन-सी विजयश्री है, सफलता है या सिद्धि है, जो सत्य की साधना से प्राप्त न होती हो? यह दुनिया संघर्षाभूमि है। यहाँ मनुष्य को अपनी उन्नति के लिए, अपनी प्रगति और स्थायित्व के लिए तथा समाज में प्रतिष्ठा के लिए पद-पद पर संघर्ष करना पड़ता है। परन्तु इस प्रकार के संघर्ष में विजयश्री उसी को मिलती है, जो सत्यपथ पर दृढ़ रहता है, जो सत्य का अवलम्बन लेकर अन्त तक उस पर टिका रहता है, वह जीवन-संघर्ष में सदैव सफलता प्रता है।
यह ठीक है कि सत्य का आश्रय लेकर चलने वाले सत्यार्थी को प्रारम्भ में कुछ कठिनाइयाँ आती हैं, किन्तु धैर्यपूर्वक सत्य पर डटे रहने से आशातीत लाभ भी होता है। सत्य पुण्य की खेती है। जिस प्रकार अन्न की खेती करने में प्रारम्भ मे कुछ कठिनाई उठानी पड़ती है, उसकी फसल के लिए थोड़ी प्रतीक्षा भी करनी पड़ती है, किन्तु बाद में जब वह कृषि फलीभूत होती है, तब घर धन-धान्य से भर देती है, इसी प्रकार सत्य की कृषि भी प्रारम्भ में थोड़ा ज्याग, धैर्य, कष्टसहिष्णुता, तपस्या और बलिदान माँग लेती है, किन्तु जब वह फलती है तो सत्यनिष्ठ के जीवन को लोक से लेकर परलोक तक पुण्यों से भर देती है, उससे कृतार्थ कर देती है। संसार में जितने भी पुण्य हैं, सुकृत है, उनका मूल सत्य है। इसीलिए तुलसी ने रामायण में कहा है
"सत्यमूल सब स्कृत सुहाए।" सत्य ही एक प्रकार से पुण्यों का अग्रण्ड स्रोत है। अतः सत्य से पुण्यश्री की उपलब्धि होती है। इसीलिए धर्मसंग्रह में तय के पुण्य से होने वाली उपलब्धियों का वर्णन करते हुए कहा है
सच्चं जसस्स मूलं, सच् विस्सासकारणं परमं ।
सच्चं सग्गद्दारं, सच्चं सिद्धीइ सोपाणं ।। 'सत्य यश का मूल कारण है, सत्य विश्वास का मुख्य कारण है, सत्य स्वर्ग का द्वार है और सिद्धि का सोपान है।'
वस्तुतः सत्यवादी की समाज में सर्व प्रतिष्ठा होती है, जनता उसका हृदय से स्वागत करती है, अभिनन्दन करती है और उसे उच्चासन देती है। उसकी कीर्ति की सुगन्ध चारों ओर फैलती है। मृत्यु के बाद भी सत्यवादी अपने यशःशरीर से अमर हो जाता है। सचमुच, सत्य मनुष्य के सम्मान, प्रतिष्ठा और आत्म-गौरव के लिए अमोघ कवच के समान होता है। जिसने इस कवच को धारण कर लिया, उसके लिए अपमान, निन्दा और अपवाद का कोई कारण ही नहीं रहता।
सत्यनिष्ठ व्यक्ति की निखालिसता, सरलता और निश्छलता का प्रत्यक्ष या परोक्ष में व्यक्ति-व्यक्ति पर अमिट प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण सारा समाज उसके प्रति श्रद्धा, सम्मान और भक्ति के फूल चढ़ाता है। सत्य ऐसे सत्यव्रती के जीवन की शोभा (श्री) होता है। शरीर का उत्तमांग जैसे मस्तिष्क कहलाता है, उसके अभावसे समग्र शरीर ही नहीं, जीवन की भी श्री नष्ट हो जाती है, वैसे ही सत्य जीवन का उत्तमांग है,