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सत्यनिष्ठ पाता है श्री को :१ १५७ है, इसे सजा फरमाई जाए।" हजरत ने युववत् पर निगाहें डालकर उससे पूछा--"क्या यह बात सत्य है ?"
युवक ने पश्चात्तापपूर्वक अपना अपराध स्वीकार किया। साथ ही ऐसा करने का कारण भी बताया। हजरत ने सारी कैमियत सुनकर कहा--- "इसे मैं कानून की रूह से मौत की सजा देता हूँ।'
युवक ने निवेदन किया--"मुझे आणने द्वारा दी गई मौत की सजा मंजूर है, परन्तु तीन दिन की मुद्दत दीजिए।" हजरत में पूछा-"क्यों ?"
उसने कहा-"एक मेरा छोटा भाई है। पिताजी ने भरते समय मुझे थोड़ा-सा सोना उसे देने के लिए सौंपा था, जो जमीन में गाड़ा हुआ है। मेरे सिवाय किसी को यह मालूम नहीं है। अतः मुझे इजाजत दीजिए कि मैं घर जाकर अपने छोटे भाई को वह अमानत सौंप आऊँ। यह काम निपटाक मैं स्वयं हाजिर हो जाऊंगा।" ।
हजरत ने कहा--"तुम्हारा कोई जामिन है यहाँ कि अगर तुम तीन दिन बाद हाजिर न हो सको तो वह तुम्हारे बदले में मौत की सजा स्वीकार कर ले।"
युवक ने कातर नेत्रों से पास ही बैठे हजरत मुहम्मद के दो सोहबतियों की ओर देखा। उनमें से एक अबूबकर साहब थे, वे इस युवक के जामिन बने। उन्होंने कहा "अगर युवक तीन दिन बाद नहीं आया ते 1मैं इसका जामिन हूँ।" तीसरा दिन होने आया। सबकी आँखें उस युवक की ओर गी थीं। जब गुनहगार युवक नहीं आया तो सभी व्याकुल हो उठे। दोनों फरियादियों ने अबूबकर से कहा- “साहब ! हमारा अपराधी कहां है ? उसे हाजिर करें।"
अबूबकर ने दृढ़ता से जवाब दिया- 'अगर तीन दिन पूरे बीत बीत जाएंगे और अपराधी नहीं आएगा तो उसके बदले में प्राण देने को तैयार हूँ।"
हजरत उमर सावधान होकर बैठे थे । तीसरे दिन दोपहर के बाद तक गुनहगार नहीं आया तो हजरत ने कहा-"अबूबकर ! गुनहगार यदि आज रात तक नहीं आया तो सजा का हुक्म तुम पर लागू किया जाएगा।" वहाँ बैठे हुए सभी लोग चिन्तातुर एवं भयविह्वल हो उठे। उस जमाने में हत्या का बदला हत्या से लेने का रिवाज था । अहिंसा का इतना विकास उस देश में नहीं हुआ था। अतः कुछ लोगों ने जामिन अबूबकर के साथ हमदर्दी दिखाते हुए फरियादियों से कहा-"अगर आज अपराधी न आए तो तुम हत्या का बदला हत्या से न लेकर इनसे धन लेकर मंतोष मानलेगा।" फरियादियों ने ऐसा करने से साफ इन्कार कर दिया। सभी चिन्तित नि उठे। इतने में तो अपराधी युवक दूर से आता दिखाई दिया। वह हाँफ रहा था और पसीने से तरबतर था। आते ही उसने हजरत उमर एवं सबको सलाम किया और अर्ज की---"खुदा का शुक्रिया है, कि मैं समय पर पहुँच सका हूँ। मैं अपने भाई को सोना देका तथा उसे पढ़ाने के लिए मामा को सौंपकर सीधा दौड़ता-दौड़ता आ रहा हूँ, ताकि में जामिन को कोई कष्ट न पहुँचे, जो मुझ अपरिचित पर विश्वास करके मेरे जामिन बने।" यों कहकर उसने अबूबकर का हाथ