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________________ आनन्द प्रवचन: भाग ६ से दूर होता जाता है। एक दिन वह परिपूर्णवतम हो जाता है, तृप्त हो जाता है। भगवद्गीता के शब्दों में-- यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतमश्च मानवः। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते।। "जो मानव आत्मा में ही रमण करता है, आत्मा में ही तृप्त हो जाता है, और आत्मा में ही सन्तुष्ट हो जाता है, उसके लिए कोई कार्य शेष नहीं रहता।" सत्यनिष्ठ व्यक्ति आत्मा में तृप्त और सनष्ट हो जाता है, वह अपने आत्म सुख में, आसस्वभाव में रत हो जाता है, तब उसके मन में सांसारिक पदार्थों तथा तज्जन्य सुखों की कामना शनैः-शनैः लुप्त हो जाती है। पुराणों में एक कथा आती है। मनुष्य का अपूर्णता बुरी लगी, उसने पूर्ण बनने की सोची और उसका उपाय पूछने ब्रह्माजी के पास पहुँचा। ब्रह्माजी ने मनुष्य का आशय समझा और कहा--"वत्स ! सत्य को धारण करने से पूर्णता प्राप्त होगी। जिसके पास जितना सत्य होता है वह उतनी ही पूर्णता प्राप्त कर लेता है। अतः तू सत्य की उपासना कर।" यह पौराणिक कथा संकेत करती है कि जो मनुष्य सत्य की शरण में जाकर उसकी निष्ठापूर्वक उपासना करता है, प्रत्येक वसीटी के प्रसंग पर अपनी सत्यनिष्ठा का परिचय देता है, वह बाह्य पदार्थों, बाह्य मुखों एवं मोहक सम्मानादि द्वन्द्वों के भँवरजाल में नहीं फँसता। उसे इनकी परवाह नहीं रहती, उसे अपनी आत्मा में ही असीम सुख, सन्तोष और तृप्ति का आनन्द मिल जाता है। फिर उसे लक्ष्मी या बाह्य सुख के चले जाने का दुःख नहीं होता, उसे सत्य का परित्याग करने में ही दुःख का अनुभव होता है। महाभारत में शान्तनु राजा के जीवन की एक विशिष्ट घटना दी गई है। उस कहानी का सारांश इतना ही है कि सत्यनिष्ठ मकृष्य धन, दान, शिष्टाचार या प्रसिद्धि, यशकीर्ति, सम्मान, बाह्य सुख आदि के बिना न रह सकता है, वह किसी चीज का अभाव महसूस नहीं करता, परन्तु सत्य के बिना नहीं रह सकता। महात्मा गाँधी के शब्दों में कहूँ तो..-"सत्य के पुजारी पर परिमिति का प्रभाव नहीं पड़ता।" उसका चिन्तन यश्न(६०/५) के अनुसार इस प्रकार रहता है. हमारे घर में सत्य की प्रतिष्ठा हो, असत्य हमसे दूर हो।" वास्तव में दुःख से संतप्त व्यक्ति अगर। पत्य की शरण ग्रहण कर लेता है तो उसे अपना दुःख दुःख महसूस नहीं होता, बल्कि वह दुःख को कर्मक्षयजनक सुख का कारण मानकर उसे सहर्ष सहने की शक्ति पा नेता है। सत्य की शरण में जाने पर कदाचित् व्यक्ति निर्धन भी हो जाए या उसके पास धनपतियों इतनी धन की आय न हो, फिर भी उसे निर्धनता या स्वल्पधनता दुखदायिनी महसूस नहीं होती। बल्कि
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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