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________________ ६ आनन्द प्रवचन भाग ६ "यज्ञस्तम्भ गाड़कर, पशुओं को मारकर और रक्त का कीचड़ करके अगर कोई स्वर्ग में जा सकता है तो फिर नरक में कौन जाएगा ?" इस पर दत्तराजा ने तमककर कहा- आपके इन गपोड़ों को मैं नहीं मानता। मुझे तो यह बताइए कि यज्ञ का फल नरक है, यह प्रत्यक्ष कैसे जाना जा सकता है ? क्या आपने किसी को नरक में जाते हुए देखा ?" आचार्यश्री ने निर्भीकता से सच सच कर दिया "आज से सातवे दिन घोड़े के खुर उछलकर विष्ठा तेरे मुख में पड़ेगी, फिर तू लोहे की कुम्भी में डाला जाएगा। अगर मेरी यह बात सच निकले तो उस पर गं तू अनुमान लगा लेना कि तुझे अवश्य ही नरक में जाना पड़ेगा । " दत्तराजा सत्ता के अभिमान में बोला- "और आपकी कौन-सी गति होगी ?" आचार्य बोले- "हम अहिंसा आदि धर्म पर चलने वाले हैं, धर्म के प्रभाव से देवगति ही होगी हमारी । " यह सुन दत्त क्रोध से अत्यन्त भभक उठा। उसने मन ही मन सोचा – अगर सात दिनों में यह बात नहीं बनी तो आचार्ज को मौत के घाट उतार दूँगा । उसने आचार्यश्री के चारों ओर सुभटों का पहरा बिठा दिया, ताकि वे कहीं भाग न जाएँ। स्वयं नगर में आया और नगर के सारे रास्तों पर से मलमूत्र आदि की गंदगी हटवाकर सारे नगर की सफाई करवा दी तथा सात तिक सर्वत्र फूल बिछा देने का आदेश देकर स्वयं अन्नतः पुर में जा बैठा। जब छह दिवस बीत गये, तब आठवें दिन की भ्रान्ति से कोपायमान दत्तराजा अपने घोड़े पर सवार होकर आचार्यश्री को मारने के लिए आ रहा था। एक जगह एक बूढ़े माली ने टट्टी की असह्य हाजत है। जाने से जहाँ फूल बिछाए हुए थे, वहाँ मार्ग के बीच में ही शौचक्रिया करके उस पर फूल ढक दिये थे। राजा का घोड़ा उसी रास्ते से आ रहा था। सहसा उसी विष्ठा गर घोड़े का पैर पड़ा और उसका छींटा उछलकर राजा के मुँह में पड़ा। राजा एकदम चौंका। आचार्यश्री द्वारा कही हुई बात पर उसे विश्वास हो गया। अतः वह वापिस लौटा। इसी बीच एकान्त स्थान देखकर भूतपूर्व राजा के विश्वस्त सिपाहियों ने उस दुष्ट जानकर पकड़ लिया और भूतपूर्व राजा जितशत्रु को पुनः राजगद्दी पर बिठा लिया। सामन्तों ने सोचा कि दुष्ट दत्त जिन्दा रहेगा तो फिर कोई न कोई उत्पात मचाएगा। अतः उसे लोहे की कोटी में बन्द कर दिया। उसमें अनेक दिनों तक अपार कष्ट भोगता हुआ, विलाप करता-करता दत्त मर गया और वहाँ से सातवीं नरक में पहुँचा । कालकाचार्य चारित्र पालन करके सत्यशरण के प्रभाव से महाविपत्ति से बच गए और स्वर्ग पहुँचे। इसीलिए महाभारत के अनुशासनपर्व में कहा है- आत्महेतोः परायें वा, नर्महास्याश्रयात्तथा । । न मृषा वदन्तीह ते नराः स्वर्गगामिनः । ।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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