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________________ सत्यशरण सदैव सुखदायी ५ उसी नगरी में उनकी गृहस्थपक्षीय भद्रा नाम की बहन थी, उसके एक पुत्र था, जिसका नाम दत्त था। वह बड़ा होने पर निश और उद्दण्ड हो गया। उसमें अनेक व्यसन भी लग गये। किन्तु किसी कारणवश राजा का मुँहलगा होने से राजा ने उसे मंत्री पद दे दिया। मंत्री बनने पर उसने तिकड़मबाजी करके राजा को किसी बहाने से राज्य से बाहर निकाल दिया और अपने आपको राजा घोषित कर दिया। राजा भी अपनी किसी दुर्बलता के कारण उससे डरकर भाग गया और छिपकर रहने लगा। लोभी ब्राह्मणों को अपने पक्ष में करने के लिए महाक्रूर मिथ्यात्वग्रस्त दत्त राजा उनसे अनेक यज्ञ कराने लगा, जिनमें अनेक पशुओं का वध किया जाता था। एक बार कालकाचार्य विचरण करते हुए तुरमिणी नगर पधारे। दत्तराजा अपनी माता भद्रा के अनुरोध से आचार्य के दर्शनास गया। आचार्यश्री ने धर्मोपदेश दिया, जिसमें उन्होंने धर्माचरण करने पर जोर दिया। उसे सुनकर दत्तराजा ने यज्ञ का फल पूछा। आचार्यश्री ने कहा जिस यज्ञ के साथ हिंसा जुड़ी हुई है, वह सुगतिदायक नहीं हो सकता। कहा भी है दमो देवगुरुपास्ततिनमध्ययनं तपः। सर्वमप्येतदफलं हिंसा न्न परित्यजेत् ।। "इन्द्रिय दमन, देव और गुरु की उपासान, दान, अध्ययन और तप ये सब तक तक निष्फल हैं, जब तक हिंसा का परित्याग न किया जाए।" इस प्रकार सत्य उत्तर देने पर भी पुनः दत्त ने वही प्रश्न दोहराया। आचार्यश्री ने कहा--जहाँ हिंसा होगी, वहाँ इहलोक में भी उसका फल बुरा है, परलोत में भी। योगशास्त्र में कहा है पंगुकुष्टिकुणित्वादि, दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः। निरागस्त्रसजन्तूनां, हिंसा संकल्पतस्त्यजेत् ।। बुद्धिमान पुरुष लूला, लंगड़ा, कुष्ठरोगी, अंधा आदि को हिंसा का फल जानकर निरपराध त्रसजीवों को संकल्पपूर्वक हिंसा का तपाग करे। इस पर सुब्ध होकर दत्तराजा पुनः बोला—“ऐसा अंटसंट उत्तर क्यों दे रहे को, जो बात हो, वह सच-सच कहो।" कालकाचार्य ने सोचा—'राजा मिथ्यात्वग्रस्त होनि से यज्ञधर्म में आसक्त है। इसे सच्ची बात सुहाती नहीं, परन्तु मेरा धर्म है, सत्य कहाँ का। मैंने सत्य की शरण ली है, वही विपत्तियों का रक्षक है। अतः कुछ भी हो जाए अनेक दुःखों का कारण, यशोनाशक असत्य तो मैं जरा भी नहीं कहूँगा।' । यह सोचकर आचार्यश्री ने दत्तराजा ने कहा-राजन ! यदि सत्य ही सुनना चाहते हो तो हिंसाजनक यज्ञ का फल नरक ही। कहा भी है-- यूपं कृत्वा पशून हत्वा, कृत्वा रुधिरर्दमम् । ययेवं गम्यते स्वर्ग, नरके केन गम्यते ?
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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