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________________ संभिकचित्त होता श्री से वंचित : १२१ 'श्रीमान' शब्द केवल लक्ष्मी (धन) वान के लिए ही प्रयुक्त नहीं होता, तेजस्वी त्यागी, प्रतिभासम्पन्न, आदरणीय, उच्च पदाधिकारी आदि सबको श्रीमान कहा जाता निष्कर्ष यह है कि 'श्री' शब्द केवल रुक्ष्मी (धन) अर्थ में ही नहीं, तथा यह केवल भौतिक लक्ष्मी के अर्थ में ही नहीं, भौलिक कान्ति, शोभा, तेजस्विता, सफलता, सिद्धि, विजयश्री आदि अर्थ में भी है, और आध्यात्मिक कान्ति, शोभा, तेजस्विता, सफलता, सिद्धि एवं विजयश्री आदि अर्थों में भी समझ लेना चाहिए। भगवद्गीता में विभूतियों का वर्णन करते हुए योगीश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है यद् यद् विभूति मत्सत्वं श्रीमर्जितमेव च। तत्तदेवावगच्छ त्वं मम लेनोंऽश सम्भवम् । अर्थात्-"जो-जो विभूतिमान (ऐश्वयुक्त) सत्त्व (प्राणी) है, जो श्रीमान (श्रीसम्पन्न) है, तथा ऊर्जित (आन्तरिक बलशाली) है, उस सत्त्वशाली प्राणी को तू मेरे तेज के अंश से उत्पन्न समझ।" यहाँ 'श्री' केवल भौतिक लक्ष्मी का मचक नहीं, अपितु आन्तरिक लक्ष्मी का सूचक है। 'श्री' कहाँ रहती है, कहाँ नहीं ? 'श्री' का महत्त्व और उसके इतने अशे और रूप समझ लेने के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जिस 'श्री' की इतनी महत्ता है, वहा कहाँ रहती है ? कहाँ नहीं रहती ? भारतीय चिन्तकों ने इस बार। को तो एक स्वर से स्वीकार किया है कि 'उयोगिनः पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः' जो व्यक्ति पुरुषार्थी है, उद्योगी है, उसी को लक्ष्मी प्राप्त होती है। परन्तु पुरुषार्थ या उद्योग का मतलब चाहे जैसा, अनीतिमुक्त, हिंसा जनित, आरम्भ-समारम्भ का पुरुषार्थ नहीं है, इसी का स्पष्टीकरण करते हुए चाणक्य सूत्र में बताया गया है 'परीक्ष्यकारिणी श्रीश्चिरं तिष्ठति' "जो व्यक्ति चारों ओर से सोच-विचा कर किसी कार्य में पुरुषार्थ करता है, उसके पास ही लक्ष्मी चिरकाल तक ठहरती है।" जो जुआ खेलकर लक्ष्मी प्राप्त करने को या अन्याय-अनीति या बेईमानी से या पशु हत्या करके या महारम्भ करके धन पाने का पुरुषार्थ करता है, उससे कदाचित् उसे लक्ष्मी मिल भी जाए, लेकिन वह अधिक दिन टिकती नहीं। इसी बात का समर्थन शुक्रनीति में किया गया है “यत्र नीति-बले चोभे, तत्र श्रीः सर्वतोमुखी।' जहाँ नीति और बल (भौतिक एवं आध्यात्मिक) दोनों का सम्मिलन है, वहीं
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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