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क्रुद्ध कुशील पाता है अकीर्ति
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रे रे मण्डक मा रोदीर्यदहं त्रोटितोऽनया । राम-रावण मुंजाया: स्त्रीमि के के न जोटिताः ।
अरे फुलके ! इस नारी ने मुझे तोड़ दिया, यह सोचकर मत रो। स्त्रियों ने तो राम, रावण, मुंज आदि न जाने कितने लोगों को तोड़ दिया है।
आगे चला तो एक धनाढ्य स्त्री मुंजराजा को भीख मांगते देखकर हंसी। यह देख मुंज बोला
आपद्गतं
हससि किं प्रविणान्यमू ।
लक्ष्मीः स्थिरा न भवतीति किमत्र चित्रम् ? सखे ! भवति दृष्ट यजलयन्त्रमध्ये, रिक्तो भृतश्च भवति, भरितश्च रिक्तः ।
अरी, धन में अंधी बनी हुई मुग्धे ! आफत में पड़े हुए को देखकर क्यों हँस रही हैं ? इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती । हे सखि ! आपने देखा होगा कि रेहंट यंत्र में लगा घड़ा भरा हुआ खाली हो जाता है और खाली भर जाता है ।
इस प्रकार सारे नगर में अपमानित दशा में घूमते हुए मुंज राजा की अपकीर्ति जन-जन के से मुखरित हो रही थी। राजा ने इस प्रकार अपमानित करके उसे
मरवा डाला ।
सच है, कुशील पुरुष की कीर्ति नष्ट होते घर नहीं लगती । यों तो कुशील शब्द में हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह आदि सभी अनिष्ट कदाचार आ जाते हैं। इन सब कदाचारों से मानव की कीर्ति समाप्त हो जाती है और अपकीर्ति ही बढ़ती है। बौद्धधर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ दीर्घनिकाय (३/५/५) में यशकीर्ति कौन-कौन व्यक्ति अर्जित कर सकता है, उस सम्बन्ध में सुन्दर प्रेरणा दी है—
उट्ठानको अनलसो आगादासु नवेषति । अच्छिदवत्ति मेधावी तादीरमं लभते यस । पंडितो सीलसंपत्र सण्हो च पटिभानवा । निवातवृत्ति अत्यद्धो तादिने लभते यसं ।
उद्यमी (पुरुषार्थी) निरालस, आपत्ति में नो डेगनेवाला, निरन्तर दान परोपकारादि सत्कार्य करनेवाला, एवं मेधावी पुरुष यशकीर्ति 'गता है। इसी प्रकार पंडित, सदाचार सम्पन्न, धर्मस्नेही, प्रतिभावान, एकान्तसेवी (राजमेति तथा लोगो के झगड़ों-प्रपंचों में न पड़ने वाला) अथवा आत्मसंयमी एवं विनम्र पुरुष यशकीर्ति पाता है।
यह बात सोलहों आने सच है कि यशकीर्ति प्राप्त करने के लिए सौम्य, नम्र एवं शीलसम्पन्न (चरित्रवान) होना अत्यन्त आवश्यक है। गौतम ऋषि ने अकीर्ति के लिए जिन दो दुर्गुणों की ओर इंगित किया है, कीर्ति लिए उनसे विपरीत दो मुख्य सद्गुणों का व्यक्ति के जीवन में होना आवश्यक है। प्रसिद्ध साहित्यकारी शेक्सपियर (Shakespeare) के शब्दों में कहूँ तो
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