SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ · बहुपुण्य के पुँजी [८६ ] मात्र तीन वाक्यों से ही मैं मृत्यु दण्ड से बच गया। तीन वाक्य ही जब इतने कल्याणकारी हैं तो उनका सम्पूर्ण उपदेश कितना मंगलमय और लाभकारी होगा।" उसी समय रोहिणेय ने चोरी के अपने वंश परम्परागत पेशे को छोड़ दिया और भगवान महावीर की शरण में जाकर दीक्षित हो गया। ऐसा होता है उपदेश का प्रभाव । उपदेश के द्वारा आत्मा जागृत हो जाती है। चोर अंगुलिमाल की आत्मा भी एक दिन इसी प्रकार जागृत हुई थी। उसने भगवान बुद्ध को घोर जंगल में से गुजरते हुए देखा तो कड़ककर कहा "ठहर जा!” बुद्ध ने शांति से उत्तर दिया ठहर जाओ!" "मैं तो ठहरा हुआ ही हूँ भाई ! तुम अंगुलिमाल यह देखकर चकराया कि साधु चलते-चलते कह रहा है "मैं ठहरा हुआ हूँ!' और मैं जो एक स्थान पर खड़ा हूँ, कहता है ठहर जाओ।' अत्यन्त विस्मय में पड़ जाने के कारण उसने बुद्ध से उनके शब्दों का अर्थ पूछा 1 - बुद्ध ने शांति से उत्तर दिया है कि मैं तो अपनी आत्मा में ठहरा हुआ हूँ। में स्थित हूँ। और तुमसे भी यही कह रहा हूँ।" - "बन्धु! मेरे कथन का तात्पर्य यही अर्थात् अपने आत्मगत शुभ भावों भगवान बुद्ध की बात सुनकर प्रोतिदिन अनेकों व्यक्तियों के खून से हाथ रंगने वाले तथा उनकी अँगुलियों की माला बनाकर पहनने वाले क्रूर अंगुलिमाल का हृदय परिवर्तित हो गया। और उसने अगना जघन्य पेशा छोड़कर आत्म-कल्याण के मार्ग को अपना लिया। सन्त महात्मा इसी प्रकार अपने सदुपदेशों से अज्ञानी व्यक्तियों की आत्मा को जागृत करते हैं। लम्बे प्रमाद अथवा अकान के कारण अगर उपदेशों का तात्कालिक प्रभाव नहीं भी पड़ता है तब भी उनका बीज शुभ विचारों के जल से निरन्तर अभिसिंचित होता हुआ एक न एक दिन शाल वृक्ष का रूप धारण कर ही लेता है। यह सब होता है संसार से उदासीन सन्तों के उपदेशों से और सन्तों का समागम मिलता है अतुल पुण्य के उम्र से । इसलिये अपनी आत्मा का कल्याण चाहने वाले प्राणी को सदगुण की खोज करके पूर्ण श्रद्धा, अखंड भक्ति और विनय के साथ ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करना चाहिए। जीवन में गुरु का स्थान अत्यन्त उच्च महत्त्वपूर्ण और पूज्य है। हम अपने चर्म चक्षुओं से इस संसार को तो देखते ही हैं, किन्तु जीवन और जगत का ज्ञान हमें जिन ज्ञान रूपी नेत्रों से होता है, उन ज्ञान नेत्रों को खोलने वाले गुरु ही होते हैं। कहा भी है
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy