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बहुपुण्य केरा पुँज थी)
शास्त्रीय वर्णन में रायासेणी सूत्र के अन्दर सूर्याभ देवता का वर्णन चल रहा है। सूर्याभ देवता की सेवा में हजारों देव रहते हैं। एक देवता की कृपा जहाँ मुश्किल है, वहाँ हजारों नता सेवा करें, इसका क्या कारण है? कारण है उनके पुण्या
एक साहूकार के हाथ के नीचे पचीसों गुमास्ते काम करते हैं, तथा अन्य सैंकड़ों व्यक्ति भी काम में रहते हैं। उस आहूकार के पास सैकड़ों व्यक्ति क्यों आते हैं? क्योंकि उसके पास पुण्यों का संचय है। करमात पुण्यवानी की होती है। इसके विषय में कहा गया है -
वश्यतां नयति पूर्वभवातं, पुष्णमेव भुवनानि किमन्यत् ?" पुण्य के विषय में अधिक क्या कहें? पूर्व-जन्म के संचित पुण्य ही तीनों लोक को वशवर्ती अथवा आज्ञानुवर्ती बना देते हैं।
पुण्य के प्रभाव से ही मानव-जम मिलता है, पुण्य के बल पर ही उच्च कुल में जन्म और पाँचों इंन्द्रियाँ परिपूर्ण त मिलती हैं। अन्यथा तो हम देखते ही
मानव भव पाकर भी कितने माज सुखी होते हैं, विविध व्याधियों के वश होका अगणित नर रोते हैं। अंगोपांग विकल हो अथवा पगाल होकर अपना -
जीवन हाय बिताते, कब हो फा मन का सपना। इस संसार में पुण्यहीनों की कमी नहीं है। कोई आँखो से अन्धा है, कोई कानों से बहरा है, कोई जबान से गूंगा है और कोई हाथ या पैर से अपंग है। मानव जीवन पाकर भी अनेक प्रकार वेत दुख और व्याधियाँ पुण्य के अभाव में ही सताती हैं। इसी से यह ज्ञात होता है कि महान पुण्य कर्मों के उदय से ही मनुष्य जीवन के साथ साथ आर्य क्षेत्र, उचकुल, तथा परिपूर्ण इन्द्रियाँ प्राप्त हो सकती हैं। पुण्य के कारण ही संसार में मान-प्रतिष्ठा, कीर्ति और सन्त समागम भी मिलता है। जिसके द्वारा मनुष्य अपनबुद्धि और ज्ञान को परिष्कृत करके तथा विवेक को जागृत करके कर्मों की निर्जरा करता हुआ आत्मा के उत्थान का प्रयास कर सकता है।