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________________ अपनी बात दीर्घदृष्टि से देखा जाय तो इस विराट् जीव जगत में हमें दो ही प्रकार के प्राणी दिखाई देते हैं - ज्ञानी और अज्ञानी । ज्ञानी वे हैं जो अपने विचार और विवेक से यह समझ लेते हैं कि आत्मा अनश्वर है तथा वर्तमान जीवन आत्मा की एक अवस्था मात्र होने के कारण अल्पकाल पर्यंत ही रहता है। जब तक आत्मा अपनी विशुद्ध स्थिति को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक जन्म-मरण से मुक्के नहीं मिलती। ऐसा विचार कर ज्ञानी मनुष्य से विमुख हो जाते हैं तथा आत्म-उत्थान के प्रयत्न में लग जाते हैं। अज्ञानी पुरुष इनसे विपरीत हो हैं। उन्हें आत्मा-अनात्मा, पुण्य-पाप तथा इहलोक और परलोक पर विश्वास नहीं होता, इनका ज्ञान नहीं होता । परिणाम स्वरूप वे अल्पकालीन भौतिक उपलब्धियों के लिए स्वार्थान्ध होकर निजत्व को खो बैठते हैं तथा सर्वज्ञ' भगवान द्वारा उपदिष्ट आगमों पर अश्रद्धा रखते हुए धर्म-मर्यादा का उल्लंघन करने लगते हैं। इतना ही नहीं, वे अपने विषाक्त विचारों से जका को भी गुमराह करने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु इस समय सृष्टि में सभी मनुष्य एक सी विचारधारा रखने वाले बन जायें यह सम्भव नहीं है। इस भूतल पर अनेक अलौकिक शक्तियाँ उद्भूत होती हैं। और वे भव्य आत्माएँ जीवन पर्यंत अपने और जगत्राण के प्रयत्न में लगी रहती हैं। ऐसे ही युग-पुरुष, श्रमण संघ के सिरमौर आचार्य सम्राट् श्री आनंद ऋषि जी महाराज इस जगतील्ल पर अवतारित हुए हैं। जिनकी अमूल्य प्रवचनावलि आज आपके सन्मुखा है। प्रारम्भिक जीवन से ही कठोर संयम-साधना के फलस्वरूप आपने अतुलनीय महत्ता और श्रमण संघ का सर्वोच्च भार प्राप्त किया है तथा संसार के अज्ञानान्धकार को नष्ट करने के लिए प्रकाश-स्तंभ सिद्ध हुए हैं। आपका तपोमय और चारित्रमय जीवन तो प्राणियों को मूक उपदेश देता ही, साथ ही विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में भी आपकी ओजस्वी एवं प्रभावशाली वाणी पूर्ण समर्थ है। आपने जिन-शासन की जो अविस्मरणीय सेवाएँ की हैं, उनका उल्लेख जैन
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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