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________________ • [ ७१] आनन्द प्रवचन भाग १ के नाम पर जो शिक्षा दी जाती है, वह केवल पुस्तकीय ज्ञान होता है और उसका उद्देश्य सांसारिक सुखों के साधन जुटाना मात्र रहता है। किन्तु हमारे आध्यात्मवादी देश में सदा से ऐसा नहीं चला आ रहा है। प्राचीन काल में यहाँ के गुरु जो शिक्षा देते थे वह केवल इहलौकिक सुख के लिये ही नहीं होती थी। वरन् संसार से मुक्त होने के लिये दी जाती थी। कहा भी है - 'सा विद्या या विमुक्तये : ' सधी विद्या वही है जो हमें मुक्त करती है। अर्थात् जो विद्या नम्रता, मधुरता, परोपकार, संयम, सन्तोष आदि सदगुणों पर आधारित होती है तथा जिसमें धार्मिक विचारों का समावेश होता है वहीं विद्या मिथ्यात्व का परदा हटाकर ज्ञानचक्षुओं को उघाड़ती है और आत्मा को जन्म-मरण के चक्र से छुड़ाती है। • - ओर उन्मुख कहने का अर्थ यही है कि जब तक शिक्षा में धार्मिक नहीं होगा, तब तक वह अपूर्ण रहेगी। इसलिये माता-पिता को बचपन से ही धार्मिक संस्कार डालने चाहिये, उनकी रुचि धर्म करनी चाहिए। चाहे वे घर पर नमोकार मंत्र ही सीखें चौबीस तीर्थकरों के नाम अथवा प्रार्थना स्तुति ही याद करें, किन्तु स्कूल में दाखिल होने से पहले ही उनमें कम से कम धर्म का बीजारोपण तो करान ही चाहिए तथा उनके हृदय में माता-पिता के प्रति, बड़ों के प्रति तथा अपने गुरु और शिक्षक के प्रति गहरी श्रद्धा और सम्मान की भावनाएँ जगा देनी चाहिए। तभी वह अपनी नम्रता और विनय के द्वारा जो शिक्षा प्राप्त करेगा उसका परिणाम शुभ होगा। अन्यथा अपनी उच्छृंखलता और अविनीतता के कारण शिक्षक के साथ रहकर भी सम्यक् ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकेगा। कहा भी है : - जे चंडे मिए श्रध्दे, ब्वाई नियडी सढे । बुड़ाई से अविणीअप्पा, कट्ठे सोअगयं जहा ।। 4 दशवैकालिक सूत्र जो क्रोधी, अहंकारी, कटुवावी, कपटी तथा अविनीत शिष्य होते हैं, वे जल में पड़े हुए काष्ठ के समान संसार सागर में बह जाते हैं। विचारों का समावेश अपने बालकों में - अर्थात् असंस्कारी और अमित शिष्य अपने शिक्षकों के समीप रह कर भी सम्यक् ज्ञान ग्रहण नहीं कर पाते तथा उसके अभाव में अपनी आत्मा को कलुषित और कषाय- युक्त बनाए रहकर अपने मानव जीवन को सार्थक नहीं बना सकते। यानी कभी भी संसार मुक्त नहीं हो सकते। सचा विद्यार्थी वही है, जिसे विषा ग्रहण की तीव्र और राची भूख हो और जो विद्या प्राप्ति के उद्देश्य में तल्लीन होकर अन्य समस्त सांसारिक सुखों को त्याग
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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