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ऐसे पुत्र से क्या...?
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इसी प्रकार 'भगवद् गीता' बौद्धगड आदि सभी एक स्वर से हिंसा को वर्जित मानते हैं। और जैनधर्म का तो प्राण ही आहेसा है। कहा भी है :
अहिंसा परमोधर्मस्तथाऽहिंसा गरो दमः।
अहिंसा परमं दानमोहंसा परमं तपः। अहिंसा परमो यज्ञस्तथाऽहिंसाः परं फलम्।
अहिंसा परमं मित्रम् हिंसा परमं सुखम्॥ - अहिंसा परम धर्म, अहिंसा पर दान है, अहिंसा परम तप है, अहिंसा परम यज्ञ और उसका फल है तथा अहिंसा ही परम मित्र और परम सुख है।
संक्षेप में अहिंसा ही समस्त शुभ-ग्याओं का एवं समस्त सद्गुणों का मूल है। इसके अभाव में दया का पालन नहीं हरता। गौतमकुलक नाम के ग्रंथ में, जिसमें केवल बीस गाथाएँ हैं, लिखा है :
___ मसे पसत्तस्स झयाइ नासो।" - जहाँ माँस खाने की भावना होगी वहाँ दया का नाश है। बालकों में धार्मिक संस्कार किस प्रकार पनपे?
यह विचार करने की बात है कि धार्मिक संस्कार किस प्रकार टिके रहें? तथा हमारे बालकों में धर्म के ये अंकुर किस प्रकार पनपें? घर में माता-पिता को समय मिलता नहीं, स्कूलों में धार्मिक शिक्षण दिया जाता नहीं और संतों के पास आने में बच्चों को शर्म आती है। फिर संस्कार कैसे डाले जा सकेंगे?
इसीलिये मैं चाहता हूँ कि आप हमारा चातुर्मास कराया है तो कम से कम धार्मिक शिक्षण के लिए जरूर व्यवस्था हो। धार्मिक शिक्षण नहीं होगा तो धर्म कैसे टिकेगा? धर्म करने वाले हों तभी अर्म टिकता है। संस्कृत में कहा गया है
"न धर्मो धार्गीकविना।" धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं रहता।
अत: अगर धर्म को टिकाना है तो अपने बच्चों को धर्म-संस्कारों से युक्त बनाओ। अन्यथा आप उनके हित-चिन्तक नहीं, वरन् अहितकारी साबित होंगे। एक सुभाषित में कहा है :
माता शत्रुः पिता वैरी, येन बातो न पाठितः।
शोभते न सभामध्ये, हंसमध्ये कोयथा ।।
वह माता शत्रु और पिता वैरी हैं जिन्होंने अपने बचों को पढ़ाया नहीं। अर्थात् उनमें उत्तम संस्कार नहीं डाले। क्योंकि अशिक्षित और असंस्कारी बालक