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• नही ऐसो जन्म बारम्बर
[४६] हो दुःख का अनुभव करता है। इसी प्रकार कभी दुख और सुख का अनुभव करने वाला मन, जो मुनीश्वरों को वश में करना कठिन प्रतीत होता है वह मेरे वश में कब हो सकता है?
तो जीवन का वह भाग जो असंयम और भोग विलास में व्यतीत होता है, जीवन को उन्नत कैसे बना सकता है, अर्थात् बाकी के समान ही उसमें से कुछ न कुछ हास को प्राप्त होता है।
वान प्रस्थाश्रम गणित का तीसरा अंग 'गुण' कहलात्रा है। इसमें संख्या 'जोड़' की अपेक्षा कई गुनी बढ़ती है। दो को तीन से गुणा करो छ: होते हैं और छ: को चार से गुणा करदो तो चौबीस। इसी प्रकार गृहस्थाश्रम से वानप्रस्थाश्रम में आते आते मनुष्य के बेटे-बेटी, पौत्र-पौत्री व दौहित्र-दौद्वित्रियाँ आदि मिलकर परिवार की संख्या में बढ़ती करते जाते हैं।
किन्तु इस अवस्था से असंयम का तमान कुछ शांत होने से तथा भोग-विलासों से ऊब हो जाने से मनुष्य के मन की भावनाएँ कुछ बदल चलती हैं। वह घर में रह कर भी तथा गृह-कार्य सम्पन्न करते हुए भी अपने दिल को टटोलने लगता है। तथा विचार करता है:
नो धत्तं किल मानुषं वरमिदं मित्रनय पुत्राय वा। नो धतं किल मानुषं वरमिदं चित्ताभिरामखिये॥ नो धत्तं किल मानुषं वरमिदं लाभाय लक्ष्यास्तथा।
किं स्वात्मोद्धरणाय जन्म-जलधेधों वरं मानुषम्।
-यह उत्तम मनुष्यत्व मुझे मित्र और पुत्रों के लिये प्राप्त नहीं हुआ है, यह मनुष्यत्व सुन्दर तथा मनोहारिणी सुन्दरियों के विलास सुख के लिये नहीं मिला है। यह उत्तम मनुष्यत्व लक्ष्मी का भंडार भरने के लिये प्राप्त नहीं हुआ है। वरन् यह मनुष्यत्व इस भयंकर भव-रूपी सागर में डूबी हुई आत्मा के उध्दारार्थ मिला
इस प्रकार विवेक के जागृत हो जाने पर भव्य प्राणी जीवन और जगत के रहस्य को समझने में लग जाता है। वह जान लेता है कि
अनित्यं यौवनं रूपं, कीवितं द्रव्यसंचयः।
ऐश्वर्यप्रियसंवासो, मातेऽत्र र पंडितः।। -- युवावस्था, रूप, जीतव्य, द्रव्य-भंडार, ऐश्वर्य सगे सम्बन्धियों का सहवास और पली-सुख आदि हमेशा रहने वाले नहीं हैं इसलिये चतुर और विद्वान पुरुष इनमें मोहित नहीं होते तथा सुख-दुख में समान रहते हैं।
इस प्रकार वानप्रस्थाश्रम में मानव स्पने हृदय का मंथन करता हुआ आत्मोन्नति