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आनन्द प्रवचन भाग १
"कैसा धोखा ?" अध्यापक का प्रश्न था । "
ये गणित के सवाल मैंने स्वयं नहीं किये, अपने मित्र की सहायता से किये हैं।" गोखले पुनः रो पड़े।
शिक्षक ने अत्यन्त प्रसन्न होकर एन गोखले की पीठ थपथपाई और गद्गद् होकर कहा "तुम सत्यवादी बालक हो! अतः अब यह पुरस्कार मैं तुम्हें तुम्हारी सत्यवादिता के लिये देता हूँ।"
बचपन से ही सत्य पर दृढ़ रहने वाले बालक गोखले एक दिन देश के महान नेता बने। इस प्रकार के बालक ही सच्ची ज्ञान-साधना कर सकते हैं -
कहने का अभिप्राय यही है कि गणित से पहले अंक जोड़ के समान ही शैशवावस्था से पचीस वर्ष की अवस्था तक ज्ञान को इकट्ठा करना चाहिये। उसमें कुछ न कुछ जोड़ते रहना चाहिए घटाना नहीं।
गृहस्थाश्रम
पच्चीस वर्ष की वय के पश्चात् मनाव गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। अर्थात् विवाह करके माता, पत्नी आदि सभी के सति अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ गृहस्थ धर्म का पालन करता है। विवाहित हो जाने के बाद यह पाँचों इन्द्रियों के सुखों का अनुभव करता है। किन्तु ध्यान रखने की बात है कि यह दूसरा आश्रम है। इसमें कुछ इकट्ठा नहीं होता, उलटे खर्च होता है।
जिस प्रकार गणित के दूसरे अंन 'बाकी' में कुछ घटता ही जाता हैं। आप जानते ही हैं कि दस में से तीन निकालो तो सात रह जाते हैं तथा सात में से चार निकालो तो तीन ही बचते हैं यानी 'बाकी' में बस घटना ही घटना होता है। इसमें बढ़ने का सवाल नहीं होता। इसी प्रकार आश्रम के दूसरे भाग गृहस्थाश्रम में ब्रह्मचर्याश्रम में जो इकट्ठा तर लिया जाता है वह घटने लगता है। उसमें बढ़ती नहीं होती। क्योंकि इस अवस्था में मन पर संयम नहीं रहता - दुष्करं चित्तरोधनम् । अर्थात चित्त की वृत्तियों को रोकना अत्यंत कठिन काम है। तभी किसी ने कहा है :
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क्वचिच्चित्तं तोषं क्वचिदपि च रोषां गमयति
क्वचिद दोष कोषं वकिंदपि च मोषं कलयति ।। क्वचित् कृच्छ्रायत्तं क्वचिदपि च रमेख्यं ह्यनुभवन् ।
कदाऽवश्यं वश्यं ब्रजति व मुनीनामपि मनः ॥
मनुष्य का मन कभी संतोष धारण करता है तो कभी रोषाकुल हो
जाता है, कभी महादोषमय बन जाता है तो कभी लक्ष्मी के भंडार भरने का विचार करा रहा है। कभी महाचौर्य कर्म के वश में होता है तो कभी महा चिंताग्रस्त