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________________ आनन्द प्रवचन : भाग १ के कारण ही अकाल पड़ता है और सि प्रदेश में पड़ता है, लाखों मनुष्य और पशु आदि मौत के शिकार बनते हैं। मेरे कहने का आशय यही है कि इन सब संकटों को मिटाने वाला मेह ही है। सारे संसार को अपने जल 6 द्वारा जीवन-दान देने वाला अपने लिए बूंद भी नहीं रखता। इससे अधिक उपकारी और कौन हो सकता है? हमें इन सबसे शिक्षा लेनी चाहिए। तथा परोपकार को अपने जीवन का भूषण मानकर उससे अपने आप को अलंकृत करने का प्रयत्न करना चाहिए। परोपकार ही इस अस्थिर जीवन का अमृत है। अपने लिए तो पशु, कीट, पतंग आदि क्षुद्र प्राणी भी जी लेते हैं, किन्तु मानव की विशेषता तभी जानी जा सकती है, जब वह पर-उपकार के लिए जिये। कहा भी है .:. आत्मार्थमस्मिन् लोके कॉन जीवति मानवः। परोपकारार्थ यो जीवति म जीवति ।। बन्धुओं, इस विश्व का प्रत्येक महा-मानव तथा प्रत्येक सचा साधक अपने लिए नहीं, वरन् औरों के लिए जीता है। परोपकार ही उसका आनन्द, उसका लक्ष्य और उसका जीवन होता है। भगवान महावीर का जीवन परांपकारमय था। वे अहर्निश प्राणिमात्र के उद्धार के प्रयत्न में लगे रहते थे। इसीलिए सूर्याभदेवता उनकी ओर दृष्टिपात करते हुए प्रार्थना करते हैं - आप 'तिण्णाणं तारयाद हैं।"
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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