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________________ • [ ३२५] आनन्द प्रवचन भाग १ आपको प्रदर्शित करे, पर वास्तविक रूपों में तो बिना पुण्योदय के उसे जिन वचन नहीं रुचते, वे सोचते हैं 'सन्तं तो व्याख्यान देते ही रहते हैं। उनका काम ही यह है । " - अरे भाई सन्त क्या यों ही अपनी शक्ति का अपव्यय करते हैं? उनके पास क्या कोई दूसरा काम नहीं है? सचा से देखा जाय तो आपका जो सांसारिक कार्य है, वह तो इस जन्म के लिए ही आपको फल देगा और सम्भव है न भी दे सके क्योंकि आपके व्यापार में आपको घष्टा नफा होता ही रहता है। किन्तु सन्तों का कार्य तो उन्हें अनेक जन्मों तक भी फल प्रदान करता है तथा उसमें घाटे का भी काम नहीं । फिर आप सन्तों के उपदेश को मात्र समय का उपयोग करना कैसे मानते हैं? उन्हें स्वयं इससे क्या लाभ है? क्या वे उस समय को उपदेश देने की अपेक्षा आत्म साधना में नहीं लगा सकते ? जिससे कि उनको अनेक गुना अधिक लाभ हो सकता है। सन्त तो आपकी भलाई के लिए ही कहते हैं। संसार के समस्त प्राणियों पर उनकी अनुकम्पा होती है इसलिए कि व्यवहार में भी आपका और हमारा पारम्परिक सम्बन्ध है। आप भी हमारे साथी और सहायक हैं। ऐसी स्थिति में अगर आप मोह निद्रा या प्रमाद की तन्द्रा में पड़े रहें और जैसा कि मैंने पहले आपको बताया था धर्म रूपी अमूल्य रत्न को इन्द्रिय विषय रूपी चोर चुराते रहें तो क्या हमारा फर्ज आपको जगाने का नहीं है? क्या नदी की ओर जाते हुए आपके मन को नेकी के रास्ते पर नहीं लाना चाहिए ? नेकी के रास्ते पर न चलने वालों को जीवन के अन्त में क्या हाथ लगता है, यह शायद आप नहीं जानते। एक उदाहरण से इसे आपको समझाता हूँ। फारसी के शायर ने कहा है : "कारू हिलाक शुद के कहल खाना गंज दारेत।" कवि ने इसमें बताया है मिश्र देश का राजा था। जिसका नाम कारूँ था। कारूँ बादशाह के पास अपार वैभव था। चारों और उसके खजाने की शोहरत फैली हुई थी। - आज भी अगर किसी को अचानाक और कोई अत्यधिक लाभ हो जाता तो लोग कहते हैं - "कारूँ का खजाना प्राप्त हो गया।" यह एक कहावत ही उसके नाम से चल पड़ी है। कहा जाता है कि उसके पास वालीस खजाने थे और एक-एक खजाने में चालीस चालीस कोठरियाँ थीं। उन समस्त कोठरियों के तालों की चाबियाँ इतनी वजनदार थीं कि उन सबका बोझ एक ऊँट ही उठा सकता था। आज भी हम पुराने तालों की लम्बी-लम्बी चाबियाँ देखते हैं तो लगता है कि वर्तमान में बनने वाले तालों की चाबियाँ उनके मुकाबले में कुछ भी नहीं
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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