SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • नेकी कर कुएँ में डाल! [३२४] है, जबकि श्रद्धा-पूर्वक श्रवण किए को जीवन में भी उतारा जाय और जिस दिन ऐसा करने की प्रवृत्ति हृदय में जागती है, उसमें नेक भावनाओं का जन्म होने लगता है। धर्म क्या कहता है। धर्म-शास्त्रों, पुराणों और धर्म ग्रन्थों में मुख्य रूप से दो ही बातें आपके समक्ष आती हैं। एक धर्म और दूसरी अधर्म। धर्म करने से आत्मा को सुख प्राप्त होता है तथा अधर्म करने से उसे दुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार धर्म और ' अधर्म पर ही धर्म-शास्त्रों की रचना हुई है। सुसरे शब्दों में नेकी और बदी, भलाई और बुराई, उपकार और अपकार इन्हीं दो बातों की मुख्यता धर्म-ग्रन्थों में आपको मिलेगी और वही यहाँ सुनाया जाता है। एक ही बार नहीं, आपको बार-बार नेकी से होने वाले लाभ और बदी से होने वाली1 हानि के विषय में समझाया जाता हम सोचते हैं कि जिस प्रकार - करत करत अभ्यास के, जप्तति होत सुजान। रसरी आवत-जात ते सिल गर परत निसान ॥ इस प्रकार सुनते-सुनते अगर आपके दिल पर असर हो गया तो आपका जीवन सार्थक हो जायगा। और किसी दिन बार लग गई तो हमारा रोज-रोज कहना भी फल-प्रद बन जाएगा। पर यह कब होगा? यह हम नहीं कह सकते। किस क्षण, किस दिन, किस वर्ष और किस भव में किस प्राणी के भवस्थिति पकेगी यह अंदाज नहीं लगाया जा सकता। जब तक पुण्योदय नहीं होता तब क तो धर्म की बातें भी मन को नहीं रुचतीं। दिखावा और बात है उससे आतम का कोई कल्याण नहीं होता, मले ही पाखंडी पुरुष दूसरों की निगाहों में अपने आपको कितना भी श्रेष्ठ साबित क्यों न कर ले। वाल्मीकि रामायण में कहा भी है : अनार्यस्त्वार्यसंस्थानः शौचाद्धीनस्तथा शुचिः। लक्षण्यवदलक्षण्यो दुःशील :- शीलवानिव॥ पाखण्डी मनुष्य अनार्य होकर भी आर्य के समान मालूम हो सकता है। शौचाचार से हीन होकर भी अपने को परम शुद्ध रूप में प्रकट कर सकता है, उत्तम लक्षणों से शून्य होकर भी सुलक्षण-सा दिखाई दे सकता है और बुरे स्वभाव का होकर भी दिखाने के लिए सुशील के समान आचरण कर सकता है। तो मैं यही कह रहा था कि दिखाम्टी रूप में मनुष्य चाहे जैसा अपने
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy