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________________ सुनहरा शैशव में ढालना माता-पिता का कार्य है। है। अतः मां का महत्व बालक के महाराज मनु ने कहा भी है : • [३२२] बालक की प्रथम पाठशाला मां की गोद होती निर्माण में अधिक महत्वपूर्ण साबित होता है। उपाध्यायन्दशाचार्या आचायणी शतं पिता । सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते ।। अर्थात् - दस उपाध्यायों से एक आचार्य श्रेष्ठ है। सौ आचार्यों से एक पिता अधिक उत्तम शिक्षक है तथा हजार पिताओं से भी एक माता की शिक्षा अधिक गौरवशाली है। ऐवंताकुमार ने भी गौतमस्वामी के निकट अपनी माता की ही प्रशंसा तथा सराहना की थी। स्पष्ट है कि संस्कारणती माता का पुत्र ही सुसंस्कारी बन सकता है। अगर वह चाहे तो अपने शिशु को क्रीडा कराते हुए भी धर्म, नीति और सदाचार का पाठ पढा सकती है, उसे सत्यवादी सद्विचारशील और अहिंसा का पुजारी बना सकती है तथा भविष्य में देश के महान और आदर्श नागरिक बनने के लक्षण उसमें पैदा कर सकती है। खेद की बात है कि अनेक अशिक्षित नारियाँ बालकों के मानस की परख न कर पाने के कारण स्वयं मी पशान होती हैं तथा बालकों को भी परेशान करती हैं। हाऊ, बाबा या सिपाही ना डर दिखाकर उन्हें कमजोर, डरपोक और आत्म-विश्वास रहित बना देती हैं। यह उनकी महान् भूल है। कालकों की शरारतों को सुधारने का भी कोई सुन्दर तरीका अपनाना चाहिए। मैंने देखा है - पाथर्डी स्कूल में जो बालक पढ़ते थे उनमें से अगर कोई विद्यार्थी अधिक शैतानी करता तो उसे क्लास का मॉनीटर बना दिया जाता था। परिणाम यह होता था कि शरारती छात्र जब दूसरे शरारतियों को उनकी शैतानियों के लिए दंड देश तो फिर वही शरारतें स्वयं कैसे करता ? अर्थात् उसकी शरारतें करना बन्द हो जाता था। कितना सुन्तर तरीका था छात्र के दोषों को हटाने का ? इसी प्रकार प्रत्येक शिशु की भूलों को सुधारने का कोई सुन्दर तरीका माता-पिता को अपनाना चाहिये । तो बन्धुओ, आप समझ गये होंगे कि शैशवकाल जीवन का कितना सुनहरा और महत्त्वपूर्ण समय होता है। अगर विचारशील माता-पिता शैशवावस्था में ही शिशु को संस्कार युक्त बनाएँ तो वही बालक बड़ा होकर अपने कुल समाज और देश के गौरव को ऊँचा उठा सकता है तथा उचकोटि का जीवन व्यतीत कर अपने दोनों लोकों को सुधार सकता है। ...
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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