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आनन्द प्रवचन भाग १
माता-पिता का प्रथम कर्तव्य है। मुझे एक अंतरर कहावत याद आ गई। जिसमें कहा गया है "लोहा गरम है, तब तक उसे पीट नो।"
शब्दार्थ तो इसका यही है कि लोहा गरम होने के समय ही पीटकर इच्छानुसार आकृतियों में ढाला जा सकता है। अतः उसे गरम रहने तक ही पीट-पाट कर उसकी जो वस्तुएँ बनाना हो, बनालो। ठंडा होने पर फिर वह किसी भी रूप में ढल नहीं सकेगा।
पर भावार्थ है समय रहते ही काम करलो अन्यथा फिर वह कार्य नहीं हो सकेगा। बालकों के लिये भी यही कात लागू होती है। उन्हें बनाने का समय उनकी बाल्यावस्था है। उस समय इच्छानुसार उनके चरित्र को ढाला जा सकता है। अगर वह समय बीत चुका तो फिर उनवे बनने की आशा नहीं है।
भविष्य की झांकी
बालकों के संस्कार कैसे हैं, यह उनाने बातचीत और खेल-कूद से सहज ही जाना जा सकता है। संत कहते हैं :
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" खापराचे होन खेलती लेकुरे, काम या व्यापारे लाभ हानि ?” बच्चों का जीवन भविष्य में कैसा बन्ने वाला है यह उनके बचपन में ही जान लिया जा सकता है। किसी बच्चे में शासन करने की योग्यता और आत्म-विश्वास होता है, तो वह अपने हमजोलियों का राजा बन जाता है और कहता है "अपराध करोगे तो तुम्हें अपने सिपाहियोंसे पकड़वा मँगाऊँगा और कड़ी सजा दूँगा ।
अरे भाई! वह कब राजा बना? और कहां है उसकी सेना ? कैसे वह मुजरिम को पकड़वा कर मँगाएगा और क्या सजा देगा! पर वह उसके भविष्य की सूचना है कि वह सत्ताधिकारी बनेगा। अभी से केवल उसका आत्म-विश्वास बोलता
है।
दूसरे, खेलने वाला अगर किसी व्याहारी का लड़का है तो वह मिट्टी का ढेर लगाकर कहेगा "मैंने दुकान खोली है किसी को कुछ लेना हो तो आ
जाओ !"
अब माल उसकी दुकान पर क्या है? केवल मिट्टी पर बालक अपनी कल्पनानुसार उसे चावल, दाल और काजू किसमिस मान लेता है। तथा फूटे घड़े की गोल-गोल ठीकरियों को पैसा समझकर कान चालू कर देता है। साथी ग्राहकों को वह मिट्टी का माल देता है और स्वयं लोकरियों के पैसे लेता है तो बताओ, अब उन देने और लेने वालों को क्या नफा या नुकसान हुआ ? कुछ भी नहीं उनका तो एक खेल है, और खेल ही खेत में उन्होंने अपनी प्रवृत्ति का परिचय मात्र दिया है।
अब उस परिचय को सही मार्ग देना अथवा उनकी प्रवृत्तियों को सही सांचे