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आनन्द प्रवचन भाग १
काल में एक दिन जंगल की ओर से लौट समय उन्होंने सड़क पर भरे हुए पानी के आस-पास हाथों से मिट्टी की पाल बनाई और उस पानी में अपने छोटे से काष्ठ के पात्र को नाव मानकर छोड़ दिया। और पात्र तैरने लगा।
कुछ समय पश्चात् ही जब ऐवन्ता मुनि के साथ जो अन्य सन्त थे वे उस स्थान पर आ पहुँचे और देखते क्या हैं कि काष्ठ का पात्र रोके हुए पानी में आराम से तैर रहा है और बाल मुनि ऐवन्ता 'नाव तिरीरे मेरी नाव तिरी ! गाते हुए हर्ष से तालियां बजा रहे हैं।
यह दृश्य देखते ही मुनि-वृन्द उलटे पै चले और भगवान से इसकी शिकायत की। कहा - "आपने ऐवन्तामुनि को सिर पर चढ़ा रखा है। क्या ऐसा कार्य एक साधु के लिए उचित है ?"
बन्धुओ ! आप सोचते होंगे कि संभ्जातः भगवान महावीर ने ऐवन्ता मुनि को सचित्त पानी का स्पर्श और उसमें पात्र को तैराने के अपराध के लिए ताड़ना दी होगी। नहीं, भगवान ने ऐसा नहीं किया। क्योंकि वे जानते थे कि ऐवन्ताकुमार मुनि होने के बावजूद भी बालक थे और मालक से अज्ञानवश जो गलती होती है, उसके पीछे गलती की भावना नहीं होती।
वास्तव में तो पापों का मूल भावना है। अगर व्यक्ति के मन की भावनाएँ पापमय हैं तो वह बिना पाप किये भी पनी है, और भावना में पाप नहीं हैं तो वह निष्पाप है। कहा भी है :
'मनसैव कृतं पापं न शरीरकृतं कृतम् ।'
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पाप शरीरकृत नहीं, मनस्कृत ही होता है।
स्पष्ट है कि बालक को उसके अपराध के लिये डाँटना फटकराना या प्रताड़ित करना ही उलटा मनुष्य के लिये पाप का कारण बनता है। क्योंकि ताड़ना के कारण बालक का आत्म-विश्वास नष्ट होता है तथा उसके मन पर निराशा की गहरी चोट लगती है। उनकी भूल को तो सही कार्य करने की प्रेरणा देकर ही सुधारा जा सकता है। तथा उत्साह दिलाकर उनकी आत्मशक्तियों का विकास किया जा सकता है।
भगवान महावीर ने ऐवन्तामुनि की मूल को भी इसी प्रकार सुधारा । साध ही अन्य मुनियों को चेतावनी दी गाल मुनि होने के कारण भले ही यह प्राप्त करेगा। अगर तुम लोगों को भी
भूल करता है, किन्तु इसी भव में मोक्ष आत्म कल्याण करना है तो ईष्या, द्वेष त्यागकर अपने मार्ग पर बढ़ो!"
ऐवन्ताकुमार के इस शास्त्रोत उदाहरण से जाहिर हो जाता है कि बालकों
का हृदय कितना सरल, निष्कपट और दर्पणकत् स्वच्छ तथा गुणग्राही होता है। जिस प्रकार साफ दर्पण पर प्रत्येक प्रतिबिम्ब स्पष्ट इष्टिगोचर होता है या दर्पण उस प्रतिबिम्ब