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________________ • सुनहरा शैशव [३१८] वे राजमहल की तरफ चल दिये। पर: आहार लेकर जब वे लौटे तो ऐवन्ताकुमार ने उनकी अंगुलि फिर पकड़ ली और साथ बलते हुए बोले - "मैं भी भगवान के दर्शन करने कालूँगा।" "प्रसन्नतापूर्वक चलो वत्स!" कहते हुए गौतमस्वामी धीर कदमों से अपने गन्तव्य स्थान की ओर बढ़े। साधु को न जल्दी और न बहुत धीरे, मध्यम गति से ही चलना होता है। पर बाल-सुलम चपलता कैसी होती है? कुमार को नपे-तुले कदमों से धीरे धीरे चलना नहीं भाया और वे बर-बार गौतमस्वामी का हाथ खींचते हुए कहने लगे - "जरा जल्दी-जल्दी चलो न! भगवान के दर्शन में देरी हो जाएगी।" बाल्यावस्था वैसे ही सुन्दर होती है पर अगर वह उत्तम संस्कारों से युक्त हो तो और भी मनोमुन्धकारी बन जात है। ऐवन्ताकुमार की अतिथि-सत्कार की भावना मुनिदर्शन की उत्सुकता और असीम सरलता ने गौतमस्वामी के हृदय को गद्-गद् कर दिया। पर उनकी चाल जो आखिर वही थी। अत: ऐवन्ताकुमार यह कहते हुए - "तुम तो बहुत धीरे-धर चलोगे मैं तो भगवान के पास जल्दी चला जाता हूँ।" अंगुलि छोड़-छाड़कर सरपट दौड़े और चन्द मिनटों में ही भगवान महावीर के समक्ष जा खड़े हुए। संत-दर्शन कभी निष्फल नहीं जाता। अपनी कुछ न कुछ छाप छोड़ता ही है। कबीर के शब्दों में - कबिरा संगत साधुकी, ज्यों गाँधी का बास। जो कछु गंधी दे नहीं, तो भी बास सुवास। अर्थात् साधु की संगति इत्र रचने वाले गांधी की संगति के समान साबित होती है। जैसे गांधी से कोई कुछ न खरीदे और वह बिना कुछ दिये ही उठकर चला जाय, तो भी उसके पास रहे ए इत्र की सुगन्ध वहाँ पर कुछ काल के लिए रह ही जाती है। इसी प्रकार व्यक्ति भले ही साधु के पास जाकर उनसे त्याग, नियमादि कुछ भी ग्रहण न कई फिर भी संत-दर्शन के कारण उसके मन में एक प्रकार का संतोष और प्रसन्नत की अनुभूति कुछ समय तक बनी रहती तो मैं कह यह रहा था कि ऐवन्ताकुमार का भगवान महावीर स्वामी के दर्शन करने जाना निष्फल नहीं गया तथा उन्होंने उस लघुवय में ही दीक्षा लेकर दर्शन का पूरा लाभ उठा लिया। ऐवन्ताकुमार, ऐवन्त मुनि बन गये। किन्तु बालक ही तो थे अत: चातुर्मास
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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