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आनन्द प्रवचन भाग १
मन लीन परिग्रह आरम्भ में प्रभु पीख न धारत भेद दुधा । जु अमीरिख जीव अभव्य हुवे किंनको न रुचे जिनवेन सुधा ।। देखिये क्या कह गया है? कहा है जो व्यक्ति अपने आत्मस्वरूप को नहीं पहचानते तथा पर- पदार्थों में आसक्त बने रहकर आत्मा के विरुद्ध जाते हैं। जिनको मिथ्यात्व का ज्वर बना रहता है। तथा धर्मरूपी भूख नहीं होती। और जिनका मन आरम्भ परिग्रह का लोलुपी होने वेत कारण प्रभु के वचनों को ग्रहण नहीं करता ऐसे अभव्य प्राणियों को जिनवाणी रूपी अमृत नहीं रुचता ।
इसलिये हमें अभव्य साबित नहीं होना है, तथा व्यर्थ की विकथाओं का त्याग करके धर्म-कथा में रुचि बढ़ाना है।
गौतम कुलक ग्रन्थ की जिस गाथा का हम विवेचन कर रहे हैं, उसका तीसरा चरण है -
"सव्वं बलं धम्मबलं किंणाई।"
• धर्मबल समस्त बलों को जीत लेता है।
अर्थात् किसी व्यक्ति के पास भले ही धन का बल हो, विद्या का बल हो, सौन्दर्य का बल और शारीरिक बल गो हो, किन्तु धर्म का बल न हो तो ये सभी बल अपना कोई महत्त्व नहीं रखते तथा इसके विपरीत किसी मनुष्य में इन सब बलों का आभाव हो पर एक धर्म का बल हो तो वह सारे संसार को अपने वश में कर सकता है।
धर्म का बल आत्मा के अन्दर से नित होता है अत: वह समस्त बाह्य बलों की अपेक्षा अनन्तगुना अधिक शक्तिशाली सागत होता है। उसका मुकाबला संसार की अन्य कोई भी शक्ति नहीं कर सकती। श्री शुभचन्द्राचार्य ने भी धर्म की अनन्त शक्ति का समर्थन करते हुए कहा है :
निःशेषं धर्म-सामर्थ्यं न सम्यग् वक्तुमीश्वर: । "
धर्म की सम्पूर्ण शक्ति का सम्यक् प्रकार से वर्णन करने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है।
वस्तुतः धर्म ही वह प्रबलतम और अचय शक्ति है, जिसके बल से जन्म, जरा और मृत्यु के दुखों का नाश किया जा सकता है। व्यक्ति में अगर धर्म का बल हो तो कोई भी अन्य सत्ताधारी उसे झुका नहीं सकता ।
कौशलराज का धर्म
कहा जाता है कि कौशल देश के प्रजा बड़े ही धर्मात्मा और दानवीर थे। उनकी दानशीलता की प्रसिद्धि चारों तरफ फैल गई थी। दूर-दूर से अभावग्रस्त व्यक्ति आते और सन्तुष्ट होकर लौटते थे।