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________________ आनन्द प्रवचन : भाग १ • [२०७] धर्म कला की महत्ता। उदाहरण का आशय यही है कि अनेवर कलाएँ सीखकर और अनेकानेक पुस्तकें पढकर भी अगर मानव भव-सागर से तैरने की आध्यात्मिक विद्या या धर्मकला न सीखे तो उसकी सीखी हुई अन्य समस्त कलाएँ व्यगे हैं। जिस प्रकार एक बहन अनेक प्रकार के व्यंजन बनाए पर उनमें नमक न डाले तो समस्त खाद्य पदार्थ फीके और नीरस लफा हैं, उसी प्रकार मनुष्य काव्यकला, नृत्यकला, संगीतकला,शिल्पकला,चित्रकला तथा शास्त्र-कला आदि अनेकानेक विभिन्न कलाएँ सीखे तो उसकी समस्त सीखी हुई कलाएँ फीकी और सेनेस्सार साबित होती हैं। गाथा का दुसरा चरण है: "सख्वा कहा धम्मकहा किंणाइ।" - सभी कथाओं को एक धर्मकथा जीत लेती है। हमारे ठाणांग सूत्र में कथाएँ चार प्रकार की बताई गई हैं - स्त्री कथा, भक्त कथा, देशकथा और राजकथा। प्रत्येक कशा के विभाग हैं, जिनका शास्त्र में विस्तृत विवेचन है। पर हमें यहाँ अधिक विस्तार नही करना है। यही कहना है कि आजकल जहाँ व्यक्ति एक से अधिक इकट्टे होते हैं वहाँ जमीन और आसमान के कुलाबे मिला देते हैं। विकथाओं की व्यर्थता लोग स्त्रियों के बारे में, पुरुषों के बारे में, देश और सरकार के बारे में, राजनीति और युध्दों के बारे में तथा चन्द्रलोक और मंगललोक के बरे में, न जाने कितनी बातें और कितने वाद-विवाद करते हैं। कभी-कभी तो हाथापाई की नौबत भी आ जाती है। पर मैं पूछता हूँ कि आखि, उससे क्या लाभ होता है? क्या उनके हृदय में सद्गुणों की संख्या बढ़ती है? क्या दुनियाँ भर की गप्पें हाँकने से उनके कर्मों की निर्जरा होती है? क्या उनकी आत्मा पर-पदार्थों से विरक्त होकर अपने अन्दर झाँकती हैं? क्या उनके हृदयों में न्याग और तपस्या की भावना जागती नहीं, यह सब कुछ भी नहीं होता। जीवन भर विकथाएँ करने पर भी उनकी आत्माएँ शुद्धता की ओर एक कदम से नहीं बढ़तीं तथा उनका परिश्रम केवल पानी को मथने के समान व्यर्थ हो जाता है, जिसे अनन्त काल तक मथा जाय तो भी मक्खन की प्राप्ति नहीं होती। धर्मकथा की सार्थकता मानव को विचार करना चाहिए कि उगः किस प्रकार जीवन का लाभ मिल
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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