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________________ • जन्माष्टमी से शिक्षा लो! [३००] वे भी राजपुत्र और क्षत्रिय हैं औरों के यहाँ जाकर भिक्षा मांगने से तो रहे। इसलिये मेरी बात मानकर यह आपसी कलह आपस में ही शांतिपूर्वक निपटा लो।" परन्तु जिसके मस्तक पर काल मंडा रह हो उसे सुबुद्धि कैसे आ सकती है? भाई विभीषण और पति-परायणा मंदोदरी आदि अनेक हित जनों के समझाने पर भी जिस प्रकार रावण नहीं माना था। उसी प्रकार शांति-दूत श्रीकृष्ण, पितामह भीष्म, महात्मा विदुर तथा आचार्य द्रोण आदि सभी गुरुजनों के समझाने पर भी दुर्योधन टस से मस नहीं हुआ। उलटे अहंकार पूर्वक श्री कृष्ण का तिरस्कार करते । हुए बोला - सुई अग्र पै ऐति, नहिं देऊ भूमि कहो केति। पाण्डव यह कौन विचारे, मत कहीन वचन उच्चारे! नहीं राजनीति पहचानो, दही दूध नुराना जानो, हो ढोर चराने वाले, मत कठिन धन उचारे! दुर्योधन का उत्तर था - मैं तो सुटे की नोंक के बराबर जमीन भी किसी को नहीं दे सकता। पांडवों की तो बिसाता ही क्या है? इसके अलावा तुम तो दूध-दही चुराते और पशुओं को चराते रहे हो, राजनीति की बातें भला तुम कैसे जान सकते हो? अत: व्यर्थ में ऐसी बात तव्हने से क्या लाभ? आईदा इस प्रकार के वचन मत कहना। दुर्योधन से कोरा उत्तर पाकर कृषप लौटे पर फिर सारी जिम्मेदारी एक तरह से उन्होंने ही ली। कृष्ण की सहायता से ही पांडवों ने महाभारत के युध्द में विजय प्राप्त की। आप जानते ही होंगे ति समय-समय पर उन्होंने कितने प्रयत्न और चतुराई से परिस्थितियों को अनुकूल बनाया था। गीता का जन्म ___ जब युध्द का प्रारम्भ होने को था, अर्जुन ने विपक्षियों में सब अपने ही सम्बन्धियों और गुरूजनों को देखकर अत्यन्त कातरता पूर्वक हथियार डाल दिये और युध्द न करने का इरादा कर लिया। किन्तु श्रीकृष्ण ने यह देखकर कि इससे सदा के लिए अनीति की विजय हो जाएगी, अर्जुन को नाना प्रकार से समझाया। उनका यह प्रयत्न भी आज हमारे समक्ष गीता के रूप में संकलित है। गीता को धर्म का महान ग्रन्थ माना जाता है, क्योंकि उसमें ज्ञान, कर्म और भक्ति, इन तीनों योगों का न्याययुक्त जीवेचन है। महर्षि द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर ने उसकी प्रशस्ति में कहा है : "गीता वह तैलजन्य दीपक है जो अनन्तकाल तक हमारे ज्ञान-मन्दिर में प्रकाश करता रहेगा।" वास्तव में ही गीता जबानी जमाखा की पुस्तक नहीं, वस् आचरण-ग्रन्थ
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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