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________________ जन्माष्टमी से शिक्षा लो! [२९८] बोल्यो द्वारपालक 'सुदामा नाम मड़े सुनि, छाँडे राज-काज ऐसे जीकी गति जाने को? द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय रहे पाय, भेटे लपटाय हिय ऐसे ख माने को? द्वारपाल के मुख से 'सुदामा पाँड़े वत नाम सुनते ही कृष्ण अपना राज्य-कार्य छोड़कर भागे हुए आए और हाथ जोड़कर ब्राह्मण होने के नाते मित्र के चरण स्पर्श किये तथा उसके बाद उन्हें हृदय से लगाकर भेंट की। तत्पश्चात् अत्यन्त प्रेम से उनका हाथ पकड़कर अन्तःपुर में ले गए। जिस अन्त:पुर में चिड़िया भी पर नहीं मार सकी थी वहाँ एक दीन-दरिद्र ब्राह्मण को स्वयं कृष्ण के द्वारा लाते हुए देखकर उनकी रानियाँ अत्यन्त चकित हुई। पर उनका आश्चर्य उस वक्त सीमा पार कर गया जबकि द्वारिकाधीश ने मित्र को रत्न जटित चौकी पर बिठा कर यात्रा से थके हुए उनका पैर धोने की तैयारी की। वे सोचने लगीं - 'जिनका चरणामृत सारे जगत का संताप नष्ट करता है हरि स्वयं ही सुदामा ब्राह्मण के चरण धो रहें हैं, कैसी अनोखी बात है। पर कृष्ण का ध्यान और किसी अरफ नहीं था वे तो सुदामा के पैरों को अपने हाथों में लिये हुये कह रहे थे : ऐसे बेहाल बिवाइन सों पग कंटक जाल लगे पुनि जोये। हाव महादुख पायो सखा तुम आये इतै म कितै दिन खोये। देखि सुदामा की दीन दसा करुणा करित करुणानिधि रोये, पानी परात को हाथ छुयो नहि, नैनन के जल सों पग धोये। कृष्ण ने स्वयं ही मित्र के पैरों में लगे हुए काँटे निकाले और फटी हुई बिवाइयों को देखकर व्याकुल होते हुए बोले .. 'हाय मित्र! तुमने कितना दुख उठाया है? पर इससे पहले ही यहाँ क्यों न आ गए! इतन दिन कहाँ बिता दिय?" कवि का कथन है कि मित्र की दा-दशा देखकर करुणा के सागर कृष्ण इतना रोए कि उनके नेत्र जल से ही सुचमा के पैर धुल गये। पानी से भरी हुई परात को तो हाथ लगाने की भी आवश्यकता नहीं पड़ी। मित्रता का कैसा ज्वलन्त उदाहरण ॐ? जहाँ संकेत मात्र से ही सारे काम बात की बात में हो सकते थे, वहाँ कृष्णा ने स्वयं ही अपने अभिन्न मित्र की सेवा शुश्रूषा की। इसके अलावा भी कोरी आम्भगत या दिखावटी प्रेम ही नहीं दर्शाया वरन् उनके सारे संकट भी दूर कर दिये। विश्वकर्मा के द्वारा द्वारिका के समान ही उन्होंने सुदामापुरी का निर्माण करा दिया और सुदामा को इसका पता ही नहीं लगने दिया। परिणाम यह हुआ कि सुदामा जब अपने गाँव वापिस लौटे तो उन्हें न
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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