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आनन्द प्रवचन : भाग १ जिस व्यक्ति को सर्प ने काटा है, उसकी समझ में मंत्र की भाषा और उसका अर्थ नहीं आता। किन्तु तब भी उसका मन भय-रहित तथा आशापूर्ण हो जाता है और उसके परिणामस्वरूप वह विष-रहित होने लाता है।
इसी प्रकार शास्त्रों की भाषा कभी समझ में नहीं भी आती है, तब भी मनुष्य का मन एक नैसर्गिक पवित्रता के प्रकाश भर जाता है और उसके फलस्वरूप पाप की कालिमा धीरे-धीरे मिटने लगती है।
इसलिए शास्त्र-श्रवण प्रत्येक आत्मोन्नति के इच्छुक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। जिस प्रकार पौष्टिक भोजन से शरीर को शक्ति प्राप्त होती है, उसी प्रकार धर्म श्रवण से आत्मा को बल मिलता है। एक भजन में कहा गया है -
एक वचन जो सत्गुरु केरो, जो सखे दिल मायं रे प्राणी।
नीच गति में ते नहिं जावे, इम भाखे जिनराय रे प्राणी।
भजन शास्त्रानुकूल, पारमार्थिक, एवं अत्यन्त तात्त्विक है। भले ही इसकी भाषा सरल और सीधी है किन्तु शास्त्र-सम्मत है। मूत्र पाठ में भी आता है
"एगमवि आयरियं धम्मियं तयणं सोचा।" जो एक वाक्य भी भगवान के वचनों में से सुन लेता है वह नीच गति में नहीं जाता। कवि ने भी कह दिया है कि अगर एक वचन भी सतगुरु का सुनकर हृदय में धारण करले तो वह प्राणी निदुष्ट गति में नहीं जाता ऐसा जिनराज का कथन है।
एक बात और कही गई है कि सत्ता के वचन को जो दिल में रखले अर्थात् उसे ग्रहण करले तो वह कुगति में नहीं जाता। सुनने का सार भी यही है कि उसे ग्रहण किया जाय। भले ही व्यक्ति प्रतिदिन का सुना हुआ सभी याद न रख सके पर दो शब्द, या दो वाक्य म वह हृदयंगम करले तो धीरे-धीरे हृदय में ज्ञान का उज्ज्वल आलोक जरुर प्रसारित होगा। एक न एक दिन आत्मा के द्वार खुलेंगे तथा उसमें धर्म का प्रवेश होकर रहेगा!।
इसीलिये महापुरुषों के द्वारा पुन:-पुन: कहा जाता है कि शास्त्र के वचनों पर विश्वास रखना चाहिए तथा शास्त्र की आत्राओं का पालन करना चाहिए। चाहे साधु हो या साध्वी, श्रावक हो या श्राविका, चो भी शास्त्र के आदेशों के अनुसार चलता है वही अपने जीवन को सार्थक बना सकता है। अन्यथा तो सारी रात पानी बरसने पर जहाँ मिट्टी गद्गद् हो जाती है। पत्थर कोरा का कोरा ही रहता है। इसी प्रकार जीवन भर धर्मोपदेश सुनने पर भी मानव की आत्मा पूर्ववत मलिन बनी रहती है। तथा मानव की आकृति में पशु के समान ही प्राणी अपना जीवन-यापन करता है। वह यह नहीं समझ पाता कि :