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का प्रयत्न करे इसकी सम्पूर्णतया छूट है।
गुणों का गर्व मत करो!
बन्धुओ, अभी मैंने गुणों का महत्त्व आणको बताया है, और यह भी बताया है कि गुणों की सर्वत्र पूजा होती है। पर सम्ध ही यह भी बताना आवश्यक है कि मनुष्य गुणों के साथ ही साथ कहीं गर्व का भी संचय न करले । अन्यथा उसके समस्त गुणों पर पानी फिर जाएगा।
आचार्य चाणक्य का कथन है :
आनन्द प्रवचन भाग १
परस्तुत गुणो यस्तु, निर्गुणोऽपि गुणी पवेत् ।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापिते गुणैः ॥
जिस गुण का दूसरे लोग वर्णन करते हैं उससे निर्गुण भी गुणवान होता है । किन्तु अपनी प्रशंसा स्वयं करने पर तो । इन्द्र भी लघुता को प्राप्त हो जाता
है।
समझने की बात है कि एक गुणहीन व्यक्ति जिसके पास न धन है, न विद्या न उसमें त्याग करने की क्षमता है और न ही तपस्या करने की शक्ति । अर्थात् कोई भी गुण उसमें नहीं है। किन्तु अगर उसका हृदय गुणीजनों को देखकर प्रफुल्लता से भर जाता है, अपने सर्वान्तःकरण से वह गुणियों की प्रशंसा करता है और उनके गुणों की सराहना करते नहीं प्रकता, तो संसार उसे भी महापुरुष मानता है तथा गुणवान की संज्ञा देता है।
किन्तु दूसरी ओर जो व्यक्ति संयम, लम, त्याग और दानादि अनेक गुणोंका धारक होता है, वह भी अगर अपने गुणों वत अहंकार करे तो उसके सब गुण निष्फल हो जाते हैं। आत्म-प्रशंसा सर्वप्रथम विनय गुण का और उसके पश्चात् अन्य गुणों का नाश करती है।
अभी मैंने कहा था कि गुणों को किसी की सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती। कस्तूरी में सुगन्ध है। इस बात को सौगन्ध खाकर कहने की क्या आवश्यकता है ? उसकी सुगन्ध तो स्वयमेव ही चारों ओर फल जाती है और लोग उसे पहचान लेते हैं। एक फारसी भाषा के कवि ने कहा है :
मुश्क आनस्त कि खुद बबोयद ।
न आंकि अत्तार बगोयद ॥
सुगन्ध वह है जो अपने अगा फैले, न कि जिसका वर्णन अत्तार
अर्थात् यानी गाँधी करे।
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जिस प्रकार सुगन्ध छिपी नहीं रह प्रकती उसी प्रकार सद्गुण भी छिपे नहीं रहते। इसलिये वाणी के द्वारा उनके प्रकाशन की आवश्यकता नहीं होती। पर