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• दुर्गतिनाशक दान
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और मानसिक, सभी प्रकार के दुःखों को नष्ट करने की ताकत है। आपके दिल में प्रश्न खड़ा हुआ होगा कि यह किन तरह? क्या दान से बीमारियाँ भी दूर होती हैं ? उत्तर में यही कहा जा सकता है कि अवश्य होती हैं।
आपने सुना होगा और पढ़ा होगा कि दान देते समय अगर उत्कृष्ट रसायन आ गई, अर्थात् भावना उत्कृष्ट हो गई तो तीर्थंकर नाम-कर्म- गोत्र का बन्ध हो जाता है। यह चमत्कार नहीं तो क्या है ? वस्तु साधारण थी। किन्तु भावना के असाधारण होते ही दान देते-देते तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन कर लिया तो उसे भविष्य में कोई भी रोग, कैसी भी पीड़ा और किसी भी प्रकार के कष्ट की सम्भावना न रही। शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार की वेदनाओं से सदा-सदा के लिए मुक्ति मिल गई।
तो शखावत सभी दर्दों की दवा हो गई या नहीं ? इसीलिये शेखसादी ने कहा है कि शखावत तमाम दर्दों की दवा है जो इन्सान इसे समझ लेता है वह संसार के समस्त दुःखों से छूट जाता है।
दान की भावना चारों भावनाओं में श्रेष्ठ है यह मैंने अभी बताया था। दान देने वाले व्यक्ति का हृदय दुखी जीवों की कुछ सहायता कर पाने का मौका मिलने से आत्मसन्तुष्टि का अनुभव करता है।
एक पाश्चात्य विद्वान ने भी कहा है :
"As the purse is emptied the reart is filled."
- विक्टर ह्यूगो
ज्यों-ज्यों धन की थैली दान में खाते होती है, दिल भरता जाता हैं।
अर्थात् तिजोरी में से दिया गया रूपया-पैसा उसी क्षण सन्तोष धन के रूप में अनेक गुना होकर हृदय रूपी खजाने में आ जाता है।
इसीलिये वेदों में भी कहा गया है :
"शतहस्तैः समाहर ग्रहस्वहस्तैः संकिर । "
- अथर्ववेद
सैकड़ों हाथों से इकठ्ठा करो और हजारों हाथों से बाँटो ।
अगर व्यक्ति ऐसा नहीं करता है यानी धन इकट्ठा तो करता जाता है
किन्तु सत्कार्य में उसे नहीं लगाता, दान रूहीं देता तथा अभावग्रस्त प्राणी के अभाव को दूर नहीं करता तो वह धन उसके लिए नाना प्रकार के दुखों का कारण बन
जाता है।