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________________ आनन्द प्रवचन : भाग १ अनुकम्पा या दया, धर्म का सबसे महावपूर्ण अंग है। इतना ही नहीं अगर हम जैन-धर्म को दयाधर्म भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं है। वास्तव में ही जैन धर्म का दूसरा नाम दया धर्म है। क्योंकि धर्म में से अगर दया निकाल दी जाय तो वहाँ कुछ भी शेष नहीं रह जाता। दया के अभाव में धर्म थोथा, निस्सार और पाखंड मात्र ही रह जाता है। दया का मूल अहिंसा जिस व्यक्ति के हृदय में अनुकम्पा की भावना होगी, वही अपने मन, वचन तथा शरीर को हिंसा से बचा सकेगा। दूसरे शब्दों में अहिंसा के मार्ग पर चल सकेगा। अहिंसा मनुष्य की प्रकृति का एक अविभाज्य अंग है तथा आत्मा का निजी गुण है। किसी भी मनुष्य के अन्दर अगर मनुष्यता जैसी कोई वस्तु है तो वह अहिंसा ही है। अहिंसा के अभाव में मनुष्य कभी सचा मनुष्यत्व प्राप्त नहीं कर सकता। अहिंसा का महत्व इतना अधिक क्यों माना गया है? इस विषय में हमारे शास्त्र कहते हैं सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउँ न मोरेजिउं। तम्हा पाणिवहं घोरं, निगंधा वजयंतिणं॥ - दशवैकालिक सूत्र - संसार के सभी जीव, चाहे वे अरिद्र हों, रोगी हों, दुखी या किसी भी अवस्था में हों, जीवित ही रहना चाहते हैं। मरना कोई भी नहीं चाहता। इसीलिए निर्गन्थ जैन मुनि इस महा भयावह हिंसा का सर्वथा व्याग करते हैं। बन्धुओ, यह भली-भाँति जान लेना काहिये कि अनुकम्पा या अहिंसा का महत्व केवल जैनधर्म या जैनशाखों में ही ना बताया गया है, वरन् सभी धर्मों में एकस्वर से अहिंसा को ग्राह्य और हिंसा को त्याज्य माना है। समयाभाव के कारण मैं सभी धर्मों के उदाहरण आपको नहीं दे पाऊंगा पर कुछ के उदाहरण आपके सामने रख रहा हूँ। वेदों में अनेक स्थानों पर अहिंसा के प्रमाण मिलते हैं तथा -- किंदेवा मिनीमसि, न किन यो पयामसि।'. -ऋग्वेद १०-१३४-७ अर्थात् --- हे देवताओ! हम न किसी को मारें, न किसी को दुखी करें। मनु-स्मृति में एक स्थान पर कहा गया है - 'यस्मादण्वपि भूतानां, द्विजानोत्पद्यते भयम्। तस्य देहाद्विमुक्तस्य, भयं नास्ति कुतञ्चन॥" - अध्याय ६-४०
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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