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________________ • (२३५] आनन्द प्रवचन : भाग १ गुरु के नजदीक रहना। बलिहारी गुरु आपकी ___हमारे आध्यात्मिक शास्त्रों में गुरु का बड़ा भारी महत्त्व माना गया है, इसीलिए मनुष्य-जन्म रूपी वृक्ष का दूसरा फल गुरु ले सेवा करना बताया है। कोई अगर कहे कि गुरु की सेवा हम क्यों करें? तो उसके उत्तर में यही कहा जा सकता है- हमारे शास्त्रों में तीन तत्त्वों की पहचान करनी चाहिए ऐसा उपदेश है। वे तीन तत्व हैं - देव, गुरु और धर्म। गुरु हो कि देव और धर्म के बीच में हैं इसलिये देव और धर्म की पहचान कराते है। किस प्रकार पहचान कराते हैं इस विषय में कहा गया हैं : "अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानासनशलाकया। चक्षुरून्मीलितं येन, तस्मैत्री रवे नमः॥" अज्ञान रूपी अन्धे हो गए हैं उन चक्षुओं को ज्ञान रूपी अंजना की शलाका से उन्मीलित करने वाले गुरुओं को हम नमस्कार करते हैं। वास्तव में ही अपने चर्म-चक्षुओं के द्वारा यद्यपि हम संसार के प्रत्येक पदार्थ को देख सकते हैं किन्तु जिन ज्ञान रूपी नेत्रों से हम अपनी अन्तरात्मा को देखते हैं उन्हें ऊधाड़ने में गुरु के अलावा और कोई भी समर्थ नहीं होता। ___ अंधेरे में जिस प्रकार व्यक्ति को काई भी अन्य पदार्थ दिखाई नहीं देता, यहां तक कि अपने हाथों में जुड़ी हुई आलियों तक को वह नहीं देख पाता, उसी प्रकार अज्ञान रूपी अन्धेरे में ज्ञानमय नेत्रों के बिना मानव अपनी आत्मा के निजी गुणों को नहीं पहचान पाता। वह यह भी नहीं जान पाता कि इस संसार में हेय क्या है और उपादेय क्या है? पा क्या है, और पुण्य क्या है? संवर क्या है, और निर्जरा क्या है? बंध क्या है और मोक्ष क्या है? इन्हीं सब बातों को जानने के लिए गुरु की आवश्यकता है और केवल गुरु ही मानव के अंतर्चक्षुओं को ज्ञान-रूपी अंजन के द्वारा ज्योतिर्मय बनाकर उन्हें यह सब देखने में समर्थ बना सकते हैं। इसीलिए गुरु का महत्त्व सर्वोपरि माना गया है, यहाँ तक कि परमात्मा से भी पहले उन्हें नमस्कार करना चाहिए। कबीर जैसे संत कह गए हैं - गुरु गोविन्द दोनों खड़े, का के लागूं पाय? बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दिया बताय। मानव अगर परमात्मा-पद प्राप्त करना चाहता है, अर्थात् अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने की आकाँक्षा रखता है तो उसे गुरु की शरण में जाना अनिवार्य है। गुरु के आभाव में अन्य कोई भी शाम उसे ऐसा करने में समर्थ नहीं बना सकती।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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