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________________ • [२२९] आनन्द प्रवचन : भाग १ और अर्ध पुष्कर द्वीप हैं। अर्थ पुष्कर द्वीप इसलिये कहा गया है कि पुष्कर द्वीप के आधे में पहाड़ है और आधे में मनुष्य के बस्ती। इस प्रकार कुल ढाई-दीप अब दाई द्वीप की लम्बाई-चौड़ाई के विषय में आपकी जिज्ञासा हो सकती है कि यह कितना बड़ा होगा। इसका समाधना यह है - एक लाख योजन का जम्बूदीप है, जम्बूद्वीप के चारों ओर दो लाख : पोजन का लवणसमुद्र है। चार लाख योजन का घातकी खंड, आठ लाख योजन वत कालोदधि समद्र और सोलह लाख योजन का पुष्कर द्वीप है। पुष्कर द्वीप के सॉलह लाख योजन में से आठ लाख योजन में मनुष्यों की बस्ती है। तो मन:पर्यायज्ञानी जिन इस ढाई द्वीप के समस्त संज्ञी अर्थात् मन वाले प्राणियों के मन की बात जान लेते हैं। उनके हृदय में चल रहे प्रत्येक विचार को समझ लेते हैं। केवलज्ञानी जिन - तीसरे प्रकार के जिन केवलज्ञानी होते हैं। जिन्हें सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है, जो भूत, भविष्य और वर्तमान काल की प्रत्येक बात को जानने में समर्थ होते हैं वे केवलज्ञानी जिन कहलाते हैं। ___ बंधुओं, आपको ध्यान होगा कि मूल। श्लोक में मानव-शरीर के छ: फलों में से पहला फल जिनेन्द्र-पूजा है। जिसमें गिन, इन्द्र और पूजा तीन शब्द निहित हैं। प्रथम शब्द 'जिन' के विषय में आपको विस्तृत बता दिया गया है, तथा अभी-अभी तीन प्रकार के जिनों के बारे में आपने जान लिया है। अब हम दूसरे शब्द 'इन्द्र' को लेंगे। जिनों के इन्द्र जिन तीन प्रकार के हुए, पर उनके जन्द्र कौन? तीर्थंकर महाराज। देवाधिदेव तीर्थकर उनके इन्द्र हैं तथा उनकी पूजा करना मनुष्य-जन्म रूपी वृक्ष का पहला फल है। पूजा कैसी हो? पूजा दो प्रकार की होती है। प्रथम द्रव्य-पूजा और दूसरी भाव-पूजा। द्रव्य पूजा करने में अनेक पदार्थों का योग मिलाना पड़ता हैं तथा आरम्भ-समारम्भ करना भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि द्रव्य पूजा करने वाले अनेक प्रकार के पदार्थ काम में लेते हैं। यथा-फल, फूल तथा अन्य प्रका के खाद्य पदार्थ।। दूसरी है भाव-पूजा। भाव-पूजा वा पूजा से श्रेष्ठ है, क्योंकि उसमें किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगता। जिनेश्वर भगवान ने अहिंसा का विधान छहों प्रकार के जीवों का रक्षण करने के लिए बनाया है। इसलिए भाव-पूजा को ही उत्तम । माना गया है। भगवान पर श्रद्धा रखना, उनके वचनों पर विश्वास रखते हुये उनके
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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