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________________ • मानव जीवन की महत्ता जिनेन्द्रपूजा, गुरु- पर्युपास्ति; सत्वानुकंपा शुभपात्रदानम् । गुणानुराग: श्रुतिरागमस्य, नृजन्मवृक्षस्य फलानमूनि ॥ आचार्य ने मनुष्य शरीर को वृक्ष की उपमा दी है और उसके छः फल बताए हैं। क्योंकि वृक्ष है तो उसके फल भी होने चाहिए। फल-हीन वृक्ष किस काम का ? तो लोक में जो छः प्रकार के फल बताए हैं उनमें से प्रथम है - १) जिनेन्द्र पूजा - भगवान के प्रति असीम भक्ति और श्रद्धा का भाव रखते हुए भक्त जो भी पूजा-पाठ आदि करता है, वह मनुष्य जन्म का पहला फल है। सद्गुरु सेवा-भक्ति करना तथा उनके सदुपदेशों २) सद्गुरु की उपासना को ग्रहण करना। [२२६] ३) सत्वानुकंपा - प्राणी मात्र पर करुणा और दया की भावना रखना। ४) सुपात्र दान -- •सुपात्र को दान देना तथा शुभ कार्य में खर्च करना। - ५) गुणानुराग गुणी जनों के गुणों को देखकर हृदय में प्रसन्नता का अनुभव करना । ६) श्रुतिरागमस्य -- आगम का श्रवण करना, तथा उनमें रुचि रखना । ये छ: फल मनुष्य जन्म के बताए हैं जो अभी मैंने संक्षिप्त में आपके सामने रखे हैं। अब हम इनमें से प्रत्येक का व्रतानुसार विस्तृत विवेचन करेंगे। जिनेन्द्र पूजा यह मानव शरीर रूपी वृक्ष का पहला फल है। 'जिनेन्द्र पूजा' में तीन शब्द आते हैं - जिन, इन्द्र और पूजा ! जिन किसको कहा जाता है --- 'जयति रागद्वेषादि शत्रून् इति जिन: ।' राग-द्वेष आदि जो भी आभ्यंतर शत्रु हैं, इन्हें जो जीत लेता है वह 'जिन' कहलाता है। राग-द्वेष आत्मा के सबसे बडे गुश्मन हैं तथा आत्मा को भारी बनाने में मूल कारण बनते हैं। किसी के प्रति आसक्ति होने से जो प्रेम उत्पन्न होता है वही राग कहलाता है तथा कर्म बंधन वत कारण बनता है तथा राग के विपरीत किसी पर द्वेष रखना, ईर्ष्या करना तथा निंदा करना ये भी कर्म-बंध के कारण हैं। इनमें से कोई भी दुर्गुण अगर आत्मा में प्रवेश कर जाय वह भी आत्मा
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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