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________________ • अमरता की ओर! [२२०] तुम्हीं इस पृथ्वी पर शान्ति एवं आनन्द का माकार रूप हो।" "दान, दया, अहिंसा, परोपकार, जप तथा शील आदि सब तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न रूप हैं जो इस पृथ्वी को स्वर्ग के समान बना देते हैं। जब महापुरुष इन्हे अपना लेते हैं उन महापुरुषों का पापरहित तथा तीनों ताप रहित शुद्ध हृदय ही तुम्हारे निवास के लिये एक मात्र सुरम्य मंदिर है।" इसीलिए मुनि श्री ने अपने भजन में कहा है - 'हे विवेकी आत्मा ! अगर तुझे मुक्ति-सुख की सची अनुभूती करनी है तो सत्य-धर्म की इस शैय्या पर शयन कर।' सत्य दर्शन सत्य अनंत रूप में असत्य व अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होता है। तथा असत्य जबकि निश्चय ही एक न एक दिन हारता है, सत्य की कभी हार नहीं होती महात्मा गाँधी ने तो यहां तक कहा है-- "परमेश्वर सत्य है, यह कहने के बजाय 'सत्य ही परमेश्वर है, यह कहना अधिक उपयुक्त है। किन्तु सत्य का मार्ग जितना सीधा है उतना संकरा भी है। तलवार की धार पर चलने के समान है। नट लोग जिस रस्सी पर एक निगाह रखकर चलते हैं, सत्य की रस्सी उससे भी पतली है।" सत्य की प्राप्ति और सत्य के दर्शन में क्या कठिनाई है? इस विषय में कहा गया हैं : हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्वं पुषत्रपावृणु सत्य-यमय दृष्टये। -ईशावास्योपनिषद् -सत्य का मुँह स्वर्णपात्र से ढंका हुआ है। हे ईश्वर ! उस पात्र को तू उठा दे जिससे 'सत्य-धर्म' का दर्शन हो सके। बंधुओ ! आप शायद समझ गए होंगे कि स्वर्ण-पात्र से सत्य से ढंके रहने का क्या अर्थ है? अगर न समझ पाए हों तो भली-भांति समझ लीजियेगा कि स्वर्ण अर्थात् धन; जब तक ह्रदाय में धन की लालसा बनी रहेगी, तब तक सत्य के दर्शन नहीं हो सकेंगे। सत्य के ऊपर लोभ का गहरा आवरण छाया हुआ है, जब तक वह हटेगा नहीं, सत्य का दिखाई देना कठिन है। इसलिये धन लिप्सा तथा अय समस्त सांसारिक पदार्थों पर से आसक्ति हटाने पर ही सत्य-धर्म की अन्तर में स्थापना हो सकती है। तथा मुमुक्षु उससे मार्ग-दर्शन पा सकता है। क्योंकि सत्य एक प्रज्ज्वलित दीपक की भांति है जिसके एक बार जल जाने पर पुन: बुझाया नहीं जा सकता, तथा अन्धकार छिपाया नहीं
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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