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• मंगलमय धर्म-दीप
[८] प्राप्त करता है तथा पाप एवं अपूर्णता के। दूर करके अपने चरित्र को उज्ज्व ल और निर्मल बनाता है। तप जीवन की प्रखर और महान् शक्ति है। इसके द्वारा आत्मा में लिपटी हुई समस्त कर्मरज विनष्ट हो जाती है। तप के प्रभाव से आत्मा शुद्ध-बुध्द होकर अपने स्वाभाविक प्रकाशमान1 रूप में अव्यस्थित हो जाती है। तभी कहा गया है :
"संजमेण तवसा अप्याणं भावेमाणे विहरड़।" तपश्चरण करने के इच्छुक साधक को यह जानना भी आवश्यक है कि तप का सचा स्वरूप क्या है? केवल आहार ग्रहण न करना ही तप नहीं है। अनशन के अतिरिक्त तप के ग्यारह और भी प्रकार भगवान ने बताए हैं, जो कि तप के समान ही उपादेय हैं।
साधना का मार्ग यद्यपि सरल नहीं है किन्तु तप के प्रभाव से वह सरल बनता है। तपाराधन करने वाले साधक में कुछ विशेष गुण होने भी आवश्यक हैं। यथा - उसकी वाणी पवित्र और प्रिय ह, उसका हृदय क्रोध और अहंकार से रहित हो। भगवान महावीर ने तो तपस्वी के लिए क्रोध और मान को अपथ्य कहा है।
अपथ्य सेवन करने से जिस प्रकार दवा का प्रभाव नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार तपस्या के साथ ही अगर क्रोश और मान रहा तो तपस्वी की समस्त तपश्चर्या निरर्थक चली जाती है। एक श्लोक में कहा भी गया है
विनयेन विना चीर्णम्-अभिमानेन संयुतम्।
महच्चापि तपो व्यर्थम्-इत्येत्वदाधार्यताम् ।।
अर्थात् - यह समझ लेना चाहिर! कि विनय के बिना और अभिमान के साथ हुआ महान तप भी व्यर्थ चला जाता है।
सच्चा तपस्वी अपने मन और आत्मा को अपने समस्त बाह्य परिवेश से पृथक कर लेता है। यद्यपि उसके जीवन में कठिनाईयों आती हैं पर वह साहस और निर्लेपभाव से उनका सामना करता हआ, उन्हें अपने मार्ग में सहायक बना लेता है। निर्लेप और नि:स्वार्थ भाव से किया हुआ तप ही उसके कर्मों की निर्जरा में सहायक बनता है, पूजा - प्रतिष्ठा अथा यश की कामना से किया हुआ नहीं। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान ने स्पष्ट कहा भी है -
"वेएज्ज निज्जरापेही।
समाहिकामे समणे तस्सी॥" - तपस्वी केवल निर्जरापेक्ष होकर ही समस्या करे अथवा समाधि कामना से तपस्या करे।
जो तपस्वी भगवान के इस आदेश को मानकर सच्चा तप करते हैं, वे