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________________ • प्रार्थना के इन स्वरों में [१८०] कानड़ कठियारा कानड़ कठियारा एक लकड़हारा था। उसने एक बार किसी संत से नियम लिया कि मैं पूर्णिमा के दिन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करूँगा। और तो बेचारे से कुछ बनता नहीं था क्योंकि उसे दिनभर जंगस्न में लकड़ी काटना पड़ता था। पर यह विचार कर कि इस नियम में मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी, न समय ही खर्च करना पड़ेगा और न एक पैसा भी व्यय होगा, उसने नियम ले लिया तथा उसका पालन करने लगा। एक बार वह जंगल से लकड़ी काटकर लाया और संयोगवश उसी गांव में रहने वाले श्रीपति नामक श्रेष्ठि के या बेचने जा पहुँचा। कठियारा नहीं जानता था कि वह कौन सी लकड़ियाँ काट कर लाया है, किन्तु श्रीपति साहूकार ने देखा तो पाया कि वे लकड़ियाँ चन्दन की हैं। साहूकार चाहता तो चुपचाप लकोईयों रखवाकर थोड़े से पैसे दे देता किन्तु वह ईमानदार था, अत: उसने स्वयं लकनहारे के लकड़ियों के बराबर सोना तोलकर दे दिया। बंधुओ! अगर आपको इस प्रकार चंद पैसों में ही चंदन की लकड़ी का गट्ठा मिले तो आप उसे छोड़ेंगे क्या? कभी नहीं! पर श्रीपति साहूकार ऐसा नहीं था अत: उसने कानड़ को लकड़ियों की पहचान करा दी और पूरा मूल्य भी दे दिया। कानड़ सोने की पोटली लेकर वहां से रवाना हो गया। चलते-चलते वह उस मार्ग से गुजरा जहाँ एक वेश्या रस्ती थी। वेश्या ने उसे देखा और कानड़ की नजर भी उस पर पड़ी। वह ठिठक गया और वेश्या के घर में चला गया। वहाँ बहुत से अन्य व्यक्ति जो बैठे हुए थे, उन्होंने कठियारे का उपहास करना शुरू किया और उसकी बहुत मजाक उड़ाई। परन्तु कानड़ ने कोई ध्यान नहीं दिया। और सोने की गठरी वेश्या के हाथों में थमा । वेश्या प्रसन्न हुई और उसने कहियारे की बहुत आवभगत की। उसने कहा - "तुम हजामत वगैरह बनाकर स्नान करती और दूसरे वस्त्र पहन लो।" कानड़ वेश्या के कथनानुसार समस्त कार्यों से निबटर कर दूसरे मंजिल ऊपर पहुँचा तो देखा कि आकाश में चन्द्रमा अपनी सोलहों फलाओं को प्रकाशित करता हुआ पूर्ण-रूप में मुस्करा रहा है। कठियारे को ध्यान आया कि उसने पूनम को तो ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का नियम लिया है। पूनम को ही व्रत रखने का भी कारण यही था कि अष्टमी और चतुर्दशी को तो व्रत की याद शायद न रहे पर पूनम के दिन जब पूरा चन्द्रमा ऊगेगा उसे देखकर तो उसे अपने व्रत का ध्यान आ ही जाएगा।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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