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अनमोल सांसें...
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हो गया है। अब तो इस मानव - भव से कुछ लाभ उठा। पर लाभ मिलेगा कैसे ? जब ज्ञान हासिल करेगा। ज्ञान प्राप्त करने से ही इन्सान सच्चा इन्सान बन सकता है। अन्यथा आकार से तो सभी इन्सान हैं ही।
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बंधुओ, इस चेतन - आत्मा के समझा, दो पत्नियाँ है। एक 'सुमति' और दूसरी 'कुमति' । इन दोनों के कार्य और परिणाम आप जानते ही हैं। तुलसीदास जी ने भी इनके विषय में लिखा है -
जहां सुमति तहँ सम्पति नाना
जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना ।
पद्य का अर्थ आप समझ ही गए होंगे। जहाँ सुमति का प्रभाव होता है, वहां सभी प्रकार की सुखकर उपलब्धियाँ दृष्टिगोचर होती हैं और जहाँ कुमति का कुप्रभाव होता है वहाँ नाना प्रकार की विपत्तियों का ही साम्राज्य बना रहता है। दोनों ही स्त्रियाँ चेतन पर अधिकार जमाने की फिराक में रहती हैं। जब जिसका दाँव लगता है अपनी सत्ता जमा लेती हैं। सारा संसार ही सुमति और कुमति के प्रपंच में पड़ा हुआ कभी सुख और कभी दुःख का अनुभव करता रहता है।
कुमति चेतन को साँसारिक प्रपंचों में फंसाती है, उसे विषय भोगों की और उन्मुख करती हैं तथा कुमार्ग पर अग्रसर करके उसके जन्म-मरण को बढ़ाती हैं। किन्तु सुमति अर्थात् सदबुद्धि ऐसा नहीं करती। वह आत्मा को हित शिक्षा देती है। उसे जन्म और मरण के दुखों का भय बताती हुई इससे छुटकारा पाने का प्रयत्न करने को कहती है। वह तो
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तेरा होगा तरण, ऐसी देती है मलाह। लेले मोक्ष किला, नहीं आवागमन ।।
कितनी सुन्दर सीख है ? सुमति व्रत कहना है कि कुमति के कहने पर मत चलो ! मैं इसलिये यह बात नहीं कह रही हूँ कि वह मेरी सौत है, वरन्, इसलिये कहती हूँ कि तुम्हें संसार से मुक्त होने पर अक्षय सुख मिल सकेगा और तुम्हारे सुख में ही मेरा सुख है। मेरी यही कामना है कि तुम मोक्ष रूपी किले का साम्राज्य प्राप्त करो और वहाँ सुख से रहो।'
सुमति को चेतन से असीम स्नेह है। इसीलिये वह बार-बार कहती है ऐसी करनी करो, जिससे मुक्ति-नगर गॅ जा सको और पुनः पुनः जन्म मरण न करना पड़े। आवागमन का झंझट ही समाप्त हो जाय। उसका कहना है :---
मिले सुख आठों याम, यह तो मुक्ति का है धाम ।
तेरा होवे सब काम, मेरी मान, मान, मान!
अर्थात् मोक्ष धाम में आठों प्रहर सुख ही सुख है। दुख का नामोनिशान भी वहाँ नहीं । अनन्त सुख का साम्राज्य वहाँ फैल हुआ है।