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________________ कटुकवचन मत बोल रे [१४४] " सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयाफ न ब्रूयात् सत्यमप्रियम।" सत्य बोलो, प्रिय बोलो किन्तु अप्रिय सत्य मत बोलो। सत्य भी अगर अप्रिय होता है तो उससे मन को ठेस पहुँचती है। एक भिखारी को आप उत्तमोत्तम पदार्थ खिलग किन्तु खिलाने के बाद अगर उसे कह दें --- 'क्यों रे! जिन्दगी में कभी खाए थे ऐसे पकवान? तो क्या होगा? भले ही भिखारी भीख मांगकर खाता है, और वास्तव में ही उसने अपने जिन्दगी में वैसे पकवान नहीं खाए, पर आपके इस तरह कहने में उसे बड़ी चोट पहुँचेगी और उसकी स्वादिष्ट भोजन पाने की खुशी का लोप हो जाएगा। दूर क्यों जायें, आप अपने घर में भी अगर प्रिय और ऊँची भाषा बोलेंगे तो आपके घर का वातावरण मधुर बना रहेगा। तथा आपका सब सम्मान करेंगे पर अगर आपके मुँह से कड़वी बातें निकलनी प्रारम्भ हो जाएँगी तो घर वाले भी सुनने को तैयार नहीं होंगे। क्रोध हमारी बहनों को भी बहुत आता है। वे लड़ेंगी अपनी सास से और गुस्सा उतारेंगी बचों को घमाघम पीटकर या देवरानी और जिठानी से लड़ पड़ेगी और रात को सोना हराम करेंगी श्रीमानजी का। बेचारे थके-माँदे पति फिर अपनी तकदीर को कोसते रहेंगे। अथवा कर्कशा स्त्री से पीछा छुड़ाने का उपाय सोचेंगे। एक दृष्टांत है। पंडितजी मोटे क्यों कर हुए? किसी गांव में दो पंडित रहते हैं। दोनों विद्वान और होशियार थे, किन्तु निर्धनता के कारण बड़े दुखी थे। कहते हैं कि .. पंडिते निर्धनत्वं, लपति कृपणत्वं अर्थात् पंडितों में निर्धनता पाई जाती है और धनवानों मे कृपणता। तो दोनों पंडित दरिद्रता से परेशाF होकर विचार करने लगे— यहां गुजारा नहीं होता, कहीं परदेश जाना चाहिए। निधार पक्का हो गया और दोनों एक दिन वहाँ से चल दिये। घर पर दोनों की पोलयों थीं पर स्वभाव में एक दूसरे से बिलकुल भिन्न थीं। एक की पत्नी अत्यन्त नम्र, मधु भाषी और पतिव्रता थी पर दूसरे पंडित की स्त्री कर्कशा और झगड़ालू थी। इस सकार एक का जीवन शांतिमय था और दूसरे का अशांतिमय। किन्तु दरिद्रता का निवास दोनों के यहाँ एक साथ था, अत: दोनों शुभ-मुहूर्त देखकर रवाना हो ही गए। चलते चलते वे लोग एक राजा के राज्य में पहुँचे। राजा विद्वान पंडितों को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उन्हें अपने यहां ठहरने के लिए कहा। राजा
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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