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________________ आनन्द प्रवचन : भाग १ • [१५] ANIMAMIRRORISM करमगति टारे नाँहिं टरे)) आज हमें देखना है कि कर्मों ली गति कितनी विचित्र है तथा लाख प्रयत्न करने पर भी इसे टाला क्य नहीं जा सकता?' गहना कर्मणोगति : कर्म की गति अति ही गहन अर्थात् अगम्य हुआ करती है। संसार में जितने भी प्राणी दिखाई देते हैं, उनमें कोई सुखी है और कोई दुखी। यह सुख और दख किसके प्रभाव से मिलता है। उत्तर एक ही शब्द से दिया जा सकता है। यानी इसका कारण है एकमात्र 'कर्म'। जीव ने जैसे-जैसे कर्म किये हैं, वैसा-वैसा फल वह भोगता है। कहा है : है संसा यहीं, अनादि से जीव यहीं दुख पाते। कर्म मदारी जीव-वानरों को हा! नाच नचाते। कर्म-का मदारी वास्तव में ही जीव-रूपी वानरों को नाना प्रकार से नचाया करता है। इर्फ खेल को कोई बंद नहीं कर सकता तथा खेल में भाग लेने से इन्कार कर सकता। वशीकरण मन्त्र से बैंधा हुआ व्यक्ति जिस प्रकार मंत्रवादी के इशारेर गति करता रहता है, उसी प्रकार कर्म-रूप मदारी के इंगित पर जीव कभी नगा और कभी हँसता रहता है। कर्मों का खेल वास्तव में ऐसा होता है। जिस जीव ने जैसे कर्मों का बन किया है उन्हें भोगे बिना उसे कदापि छुटकारा नहीं मिल सकता - "अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।" -विक्रमचरित्र - इस आत्मा ने शुभ अथवा अशुभ जैसे भी कर्म किये हैं, उन्हीं के अनुसार शुभ अथवा अशुभ फल इसे अकय भोगने पड़ेंगे। जैसी भावना : वैसी सिद्धि भावना एक ऐसी चीज है, जिसके द्वारा आप चाहें तो उँचाई की ओर अग्रसर हो सकते हैं तथा जिसके कारण ही नीचे की ओर भी उतरते चले जा सकते हैं। संस्कृत में कहा भी है :
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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