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कटहल के पेड़ की छाया साँझ के सुरमई रंग में और रंगी आ रही थी। भुट्टा देते हुए डिमि का हाथ अचानक धनपुर के हाथ से छू गया।
मुसकरा पड़ी वह । उसने भी पूछा : "हाँ, पीछे-पीछे तुम क्यों चले आये ?" “यों ही; कपिली को देखने के लिए।"
झूठमूठ का उत्तर । मगर एक क्षण को कपिली की ओर उसकी आँखें उठी अवश्य। मानो डिमि का ही प्रतिरूप हो कपिली। पूस के महीने की मदिर-मन्थर धारा। दोनों ओर धूप में नहायी घास के अंचल। बीच से झिलमिल-झिलमिल करती दिखती कपिली की तरल तरंगें !
डिमि ने कपिली की ओर देखा। फिर धनपुर की ओर । उसके बाद होंठों पर उभरती हँसी में खो रही।
"कपिली को तुम लोग भी प्यार करते हो क्या ?" कादम ने सुपारी काटतेकाटते पूछा।
"हाँ, हम लोग तो बहुत मानते हैं।"
बूढ़ी उसका भुट्टा खाना देख रही थी। देख रही थी : कभी दाने चबाते मे मुंह अटक रहता, कभी न जाने कितने दाने होते मुंह में कि चलता तो चलता ही रहता। एकाएक बोली कादम :
"जानते हो धनपुर, कपिली के कई गुह्य नाम भी हैं। यह भी एक देवता है, देवता।"
"हाँ, देवता है।" दो क्षण मौन रहा धनपुर । फिर एकदम से बोला : "तुम लोग अब पार कैसे जाओगी ?" "नाव देखनी होगी कोई।"
धनपुर की आँख दूर सामने बालू पर पड़ी एक नाव पर गयी। नाव वाला कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। धनपुर बोला :
"मैं पार करा दूं ? उधर नाव है।" "तुम्हारी है बेटा ?" "नहीं; मगर मैं पार करा सकता हूँ।" "ना बेटा, तुम अब घर जाओ । गुस्सा करेंगे घरवाले।" "मैं उनसे नहीं डरता। एक भाई ही तो हैं : वह मुझे चाहते हैं।" बूढ़ी जैसे एक सकपकाहट में पड़ी : "पर एक बात बताओ बेटे, तुम इतनी दूर साथ-साथ आये क्यों ? धनपुर धीमे से हंसा: "मच बताऊँ ? डिमि के लिए।"
मत्युंजय ! 5