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तिलेश्वरी की मौत उससे बेहतर थी । वे कुछ-न-कुछ करके तो मरीं । कॅली ने उन दोनों को बातें नहीं बतायीं न, वे कैसे मरीं ? उन्हें क्या हुआ था ? घिरनी कब तक घूमती है ? जब उसमें धागा होता है; लेकिन धागा रहते हुए भी सुभद्रा की जीवन घिरनी ने घूमना बन्द कर दिया -- वह सब सोचते ही कलेजा दहलने लगता है ।"
मकरध्वज की खुराक लाभकारी सिद्ध हुई । थोड़ी-सी राहत पाते ही उन्होंने चाय को भगौनी फिर चढ़ा दी और कटोरी की चाय गुड़ के साथ पीने लगे । गोसाइन पनबट्टा उठा लायों और पान बनाते हुए बोलीं :
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"कॅली दीदी ने दोनों की बातें बतायी हैं । कनकलता भरी-पूरी युवती थी : ललाट पर सिन्दूर की बिन्दी लगाये और बूटेदार रिहामेखला पहने । तब गहपुर थाने की ओर जुलूस बढ़ रहा था। चींटी की तरह आदमियों की क़तारें थीं। जैसा कि दीदी ने बताया, उन दिनों मंगलदे में भी जनता इसी तरह जाग उठी थी । परिघाट का भी यही हाल था । अपनी कनकलता सबसे आगे थी । कनकलता सचमुच कनकलता ही थी – नाम, गुण और साहस; हर बात में। हाथ में तिरंगा और मुँह में 'भारत छोड़ो' का नारा। साथ ही, सारी जनता के मुख से निनादित दसों दिशाओं को हिलाकर रख देनेवाली आवाज़ ।
" जुलूस तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था। दारोगा और पुलिसवाले भी आतंकित थे । पर इससे क्या ? आखिर थे तो वे अंग्रेज़ों के ही ख़रीदे हुए दास । वे भी सुरक्षा के लिए सन्नद्ध हो गये । बन्दूकों में गोलियाँ भर ली गयीं । कनकलता अब तक थाने के सामने आ चुकी थी लेकिन जब आगे बढ़ने से रोक दी गयी तो उसने कहा, 'क्या जनता का सारा उत्साह यों ही व्यर्थ जायेगा ? चढ़ते पानी में मछली मारने के लिए आयी थी, तो क्या बिना मछली पकड़े ही लौट जाऊँगी ! विदेशियों के झण्डे को उतार तिरंगा फहराकर ही दम लूंगी।' जैसी कथनी वैसी करनी। और तब किसी ने उसे छप्पर पर चढ़ा दिया । इस विदेशी झण्डे को उतार उसने वहाँ तिरंगा लहरा ही दिया। तभी उसकी छाती को बेधती हुई एक गोली निकल गयी । 'मैं तो चली, इसे गिरने मत देना, लो थामो इसे' कहती हुई वह लुढ़क गयी थी ।
" इसके बाद एक-एक कर कई लोग झण्डा थामने आगे बढ़े। पुलिस ने सबको भून दिया। गोलियों की बौछारें शुरू हो गयी थीं। हमारे लोग निहत्थे थे । तीर्थयात्रियों की तरह । पता नहीं कितने लोग मारे गये ! उसके बाद कुछ लोग लाशें लेकर लौट आये। कनकलता के सीने पर मानो एक और दहकती हुई सिन्दूर - बिन्दी दिखाई पड़ी थी । कुमुदिनी की पंखुड़ी की तरह उसकी आँखें सदा के लिए बन्द हो चुकी थीं ।"
गोसाईं चाय पीकर आँच कम करते हुए बोले :
मृत्युंजय / 65