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________________ "सुभद्रा आग लगा जल मरी" गोसाइन धीरे से बोली। गोसाईं आश्चर्य में पड़ गये । उन्होंने पूछा : "क्या ? फिर मिलिटरी के हाथों पड़ गयी थी क्या ?" "नहीं, मिलिटरी के हाथों नहीं पड़ी। शायद उसकी मति मारी गयी थी। धनपुर जिस दिन उससे विदा लेकर यहाँ लौटा था, उस दिन तो वह एकदम ठीक थी। हंस-बोल रही थी। बाद में उसे वहाँ न पा वह बावली-सी हो गयी थी। सपने में भी कभी-कभी मिलिटरी का अत्याचार देखा करती थी। कभी धनपुर को गोली लगने के सपने देखती तो कभी भूत-ग्रस्त की नाईं अनाप-शनाप बकने लगती। कोई उपाय न देख कॅली ने उसे डॉक्टर को दिखलाया। डॉक्टर ने बताया कि उसे कोई बीमारी नहीं । ओझा से उसकी झाड़-फूंक भी करवायी गयी। तब भी उसका रोना, चिल्लाना, बड़बड़ाना कम नहीं हुआ। बस यही कहती थी, 'अब जीकर क्या होगा ! उन निगोड़ों ने मेरी देह जूठी कर दी है।' बीच-बीच में कलप उठती। ___ "कॅली दीदी बता रही थीं कि उसकी रुलाई जंगली हिरणी के रुदन जैसी ही लगती थी। इस तरह का रोना अपशकुन माना जाता है । परसों रात वह कॅली दीदी के पासवाले कमरे में सोयी थी। उसने तभी अपनी देह पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा ली । पहले तो किसी को पता भी न चला, पर आग लगती देख लोग चिल्ला उठे। लेकिन तब क्या होता ? तब तक वह जल चुकी थी। कमरे में आग लग चुकी थी। आश्रम का बहुत-सा सामान भी जल गया। उसके तुरन्त बाद कली दीदी यहाँ आयीं । हमसे यह सब कहते-कहते वह स्वयं रो रही थीं। उन्हें रोते देख मैं भी रो पड़ी थी। वह रखैल भी रो उठी थी।" गोसाइन ने जैसा सुना था, बिना लाग-लपेट के सब कुछ बता दिया। __ "तुम लोग कब रोती-धोती रहीं?" हमें तो इसका कुछ पता ही न चला। "पता कैसे चलता ! हम सब दूर बखार के बग़ल में थीं। कली दीदी को यहाँ घर आना ठीक न अँचा । उन्होंने सोचा, कहीं काम में बाधा न आ जाय। विशेषकर धनपुर का मन बैठ जाने से सारा काम बिगड़ जाने की सम्भावना दिखी। और हम लोग भी रोहा की रहदै, तिपाम की भाद और शिलगड़ी की आधोनी की तरह एक साथ रो-गाकर अपने घरों को लौट गयीं । कॅली दीदी दधि के घर चली गयीं । उस रखैल के लिए ढेंकी वाले घर में ही एक विछावन लगा दिया है। उसके पाँव भारी हैं । ऐसी अवस्था में उसे बाहर भी तो नहीं रखा जा सकता । तब से बिछावन पर पड़ी-पड़ी मैं आपकी बाट जोहती रही। अकेले होने के कारण मेरा दिल घबड़ा रहा था। तभी जंगल से हिरणी के रोने की आवाज़ सुन पड़ी । लगा जैसे सुभद्रा ही रो रही है । अब आप ही बताइये कि यह सब मैं कैसे सहन करू!" अलाव के उजेले में गोसाई ने पत्नी के चेहरे की ओर देखा । उनका आँचल मृत्युंजय / 63
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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