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________________ झील । इस सब के मध्य हैं बहा और मायङ की पहाड़ियां। दोनों पर गणदेवता गणेश अधिष्ठित है : विघ्ननाशक । लेकिन तुम तो ठहरे नास्तिक । देव-पितरों पर तुम्हारा विश्वास ही नहीं। हम सबने तो पहले से ही मनौती मान रखी है।" "क्या ?" धनपुर ने हँसते हुए पूछा। "दो रोहू मछलियाँ।" "अच्छा, गणेशजी ने तुम्हारी कोई आशा कभी पूरी की ?" धनपुर मुसकराया। "नहीं । एक बार एक सन्तान पाने के लिए एक पाठे की मनौती मानी थी, पर उन्होंने आँख उठाकर देखा तक नहीं।" धनपुर के स्वर में कटाक्ष खनका : "देवता होते ही ऐसे हैं । अन्धे-बहरे, गूंगे और नपुंसक ।" मधु झल्ला उठा: "चुप कर ! जो मुंह में आता है बक देता है । जानता नहीं, यह तन्त्र-मन्त्र का देश है।" धनपुर हँसने लगा। इतने में माझी लौट आया। महाजन ने दोनों को बुलवा भेजा था। तीनों अन्दर चले गये। __ महाजन एक पीढ़े पर बैठ फूंकें मार-मारकर आग सुलगा रहे थे। मधु को देखते ही पूछा उन्होंने : "कौन हैं ये लोग?" मधु ने धनपुर का परिचय दिया। लयराम ने सिर से पैर तक उसे गौर से देखा । फिर दोनों को अलाव के पास ही बैठा लिया । माझी एक ओर को बिछावन लगाने लगा। मोटा-सा गद्दा, उसके ऊपर एक फटी-सी मैली चादर और सिरहाने एक चीकट तकिया। बूढ़ा अपनी नाव को लोटने लगा तो लयराम ने टोका : "चिलम पीनी हो तो उधर से भर लो। और चाय पीने की इच्छा हो तो पानी चढ़ा दो। पीकर चले जाना।" __"चिलम का एक दम मार लेता हूँ। चाय बनने तक रुक नहीं पाऊँगा।" धीमे से आगे कहा : "तड़के ही तो निकलना होगा।" ___इतना कहकर वह अन्दर चला गया और थोड़ी देर बाद एक चिलम तम्बाकू और साथ ही पतीली में पानी लिये हुए बाहर आया। अलाव पर पानी चढ़ाकर उसने चिलम पर आग सजायी। फिर सुट्टा लगाकर मुँह से धुआँ छोड़ते हुए बोला : "तम्बाकू तो बड़ी जोरदार है। अपनी यह बंजर और बलुआही ज़मीन भी कामधेनु निकली। इस गंगबरार पर क़ब्ज़ा जमने के बाद से ही मालिक के भाग 54 / मृत्युंजय
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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