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होगा। कैसा सब भुतहा लग रहा है यह जंगल भी। तुम्हारे पास दाव तो है न ?"
"हाँ; डरते क्यों हो?" धनपुर ने उसकी तरफ़ कनखियों से देखा।
दोनों सोते के किनारे-किनारे अँधेरे जंगल को चीरते हुए आगे बढ़ने लगे। उधर से लकड़हारों और भेड़-बकरियों के आने-जाने का रास्ता था। इसी से जहां-तहाँ मिट्टी के टीले थे, सारे में ऊबड़-खाबड़ और कटीली झाडियां। मधु रास्ता पहचानता हुआ आगे-आगे चल रहा था। धनपुर चुपचाप उसके पीछेपीछे।
दोनों जब जंगल के दूसरे छोर पर पहुँचे तब मधु ने कहा : "अरे, एक बात तो मैं बताना ही भूल गया ! कैसा वज्र मूर्ख हैं मैं भी !" "क्या हुआ?" धनपुर के कान खड़े हुए।
"लयराम के पास तो एक ही बन्दूक़ है। इस एक से अंगरेजी फौजियों का सामना कैसे करेंगे ! अपनी साधारण बुद्धि से मैं तो यही समझ पाता हूँ कि हिंसा को अपनाकर हम कुछ नहीं कर सकेंगे।"
धनपुर हँसने लगा :
"जिसमें कुछ कर गुजरने का साहस न हो वह न कुछ हिंसा से कर सकता है न अहिंसा से । लगता है तुममें साहस की ही कमी है।"
मधु को बहुत बुरा लगा। बात जैसे उसके कलेजे को छेद गयी। फिर भी अवसर का ध्यान करके धनपुर से उसने धीरे से कहा : ___"आपकी तो हर बात ही निराली है। आप जैसे वेद-विधानों से ही नहीं, चारों सीमाओं से भी परे हैं । पर मैं तो किसी से भी अलग नहीं। तभी तो चिन्ता में पड़ा हूँ। मेरी आत्मा इतने प्राणियों की हत्या को स्वीकार नहीं कर पाती।" ___"अरे, मगर अब घाट पर पड़े मुरदे की तरह बड़बड़ाने से लाभ ! कुछ भी अब सोचना-कहना अधिकार के बाहर है। इससे अब छुटकारा भी नहीं। उधर तुरही बजी और इधर रणचण्डी उठ खड़ी हुई ! बस ! हमें अब रण में ही उतरना है। तुम सोचो तो मधु भाई, कि जिन फ़ौजियों ने तिलक का कलेजा छेद डाला, भागेश्वरी की हत्या की, सुभद्रा बेचारी पर उस तरह जुल्म ढाया-हमारी यह लड़ाई उनके विरुद्ध है। मौवामरियों और बर्मियों के युद्धों से भी यह कहीं अधिक भयंकर है । बस, इतना जान लो कि हमारी असली लड़ाई तो यह है ।"
धनपुर ने एक बीड़ी सुलगा ली।
चलते-चलते दोनों जंगल के बाहरी बेड़े के पास आ गये। बेड़ा अधिक ऊँचा ही था। दोनों फांदकर पार हो गये। हठात् थोड़ी देर के लिए दोनों ठिठके । मधु ने धनपुर का चेहरा देखना चाहा। अंधेरे के कारण, लेकिन दिखा कुछ नहीं। चुनौती के स्वर में उसने कहा :
"मैं मधु हूँ, समझे ! कोई ऐरा-गैरा नहीं। आदमी की ज़िन्दगी भी ऐसी-वैसी 44 मृत्युंजय